कांग्रेसः सल्तनत गई, सुल्तानी बरकरार

By: Devendra Gautam
9/11/2017 9:49:22 AM
new delhi

-नागेंद्र प्रसाद

यूपीए सरकार में मंत्री रहे जयराम रमेश ने कांग्रेस की स्थिति बयान करते हुए कहा था-सल्तनत चली गयी लेकिन अभी भी खुद को सुल्तान समझे बैठे हैं हम। बात में वजन है। वास्तव में कांग्रेस अभी भी अपनी स्थिति का अहसास करने को तैयार नहीं है। उसकी सोच शायद एक बिंदु पर टिक कर थम गयी है। उसके अंदर नीति और नीयत दोनों का अभाव है। एकमात्र रणनीति है कि संसद को चलने नहीं देना है। दूसरी नीति है धर्म निरपेक्षता की आड़ में आर्थिक घोटालों को ढके रखना।  

कांग्रेस की राजनीति अखलाख और जूनैद से आगे बढ़ ही नहीं पाती। नेशनल हेराल्ड मामले में सदन में हंगामा किया गया जबकि उस मामले का कांग्रेस से कुछ लेना देना था ही नहीं। मामला सिर्फ सोनिया और राहुल के खिलाफ था। जूनैद का झगड़ा सीट का था। उसे बीफ का मामला बना दिया गया। दो लोगों के झगड़े में हुई मौत को ’बीफ के कारण माब लिचींग बता कर सदन में हंगामा किया गया। अल्पसंख्यकों की सुरक्षा पर चिंता व्यक्त की गई।  इस मुद्दे पर  दिल्ली में राष्ट्रपति भवन तक मार्च निकाला गया और राष्ट्रपति को विधिवत ज्ञापन सौंपा गया। दुनिया में भारत की ऐसी तस्वीर पेश करने की कोशिश की गयी मानो यह रहने के लायक ही नहीं। अल्पसंख्यकों के लिए तो बिल्कुल ही नहीं। इतना ही नहीं कांग्रेस पोषित बुद्धिजीवियों द्वारा अवार्ड वापसी का स्वांग रचाया गया। यह सब करते हुए यह ध्यान भी नहीं रखा गया कि इससे दुनिया के सामने देश की क्या छवि बन रही है। इस ड्रामेबाजी को देशवासी किस रूप में देख रहे हैं। हंगामा करना और सदन को अवरूद्ध करना शायद कांग्रेस की समझ में विपक्ष का यही धर्म होता है। जनहित और देशहित के बिल लटकते हैं तो लटकते रहें। हम तो हमारी सुल्तानी अदा पर कायम रहेगें। सदन चलने नहीं देगें। कांग्रेसियों का आचरण उसके शीर्ष नेताओं के मानसिक दीवालियापन का द्योतक है।

       कभी राष्ट्रपति महोदय ने अपने अभिभाषण में स्व. नेहरू जी का नाम नहीं लिया तो हंगामा। कभी कांग्रेस के एक नेता पाकिस्तान के अधिकारियों से आग्रह करते हैं ’इन लोगों को हटाइए हमें ले आइये सब ठीक हो जायेगा। कभी कोई कश्मीर में आतंकवाद की खेती करने वालों से वार्ता करने और गले मिलने चला जाता है। अलगाववाद की चादर ओढ़े आतंक संचालित करने वालों से पूछिये। कैसी और किस भाषा में वार्ता करते हैं मणिशंकर जी। कभी राहुल गांधी पर किसी ने पत्थर फेंका तो हंगामा। उसमें भाजपा की साजिश तलाशी जाने लगती है। कांग्रेसियों को यह बात क्यों नहीं समझ में आती कि जब आप सुरक्षा कर्मियों के निर्देशों का पालन नहीं करते तो हादसों को आमंत्रित करते हैं। अपनी सुल्तानी को कायम रखने के लिए सुरक्षा निर्देशों का पालन भी आवश्यक है। वैसे भी भारत एक लोकतांत्रिक देश है। भले उनकी पार्टी में व्यक्तिवाद और परिवारवाद हो। देश में तो लकतंत्र है। लोकतंत्र में अच्छे कर्मों के लिए जनता माथे टेकती हैं और बुरे कर्मों के लिए पत्थर भी मारती है। टमाटर और सड़े अंडे भी फेंकती है। कभी किसी को थप्पड़ भी मारती है। किसी के मुंह पर कालिख भी पोतती है। कभी-कभी चप्पल भी उछाल देती है। भारत वर्ष की जनता है कोई कांग्रेसी नेता थोड़े हीं न है कि आपका जूता हाथ में लेकर पानी पार करायेगी।

       जेएनयू में जब उमर खालिद जैसे लोग भारत तेरे टुकड़े होंगे और आजादी के नारे लगा रहे थे तो राहुल जी वहां पहुंच कर उनकी हौसला-अफजाई कर रहे थे। क्या भारत का आम आदमी उनके इस कृत्य से प्रसन्न हुआ होगा...। क्या नाम दिया जाये इसको...। किस तरह की राजनीति कहा जाये इसको...। कभी डोकलाम विवाद के बीच वे दबे पांव चीनी दूतावास पहुंच जाते हैं। कांग्रेस पार्टी इसकी पुष्टि नहीं करती। गलत करार देती है। जब मामला सार्वजनिक हो जाता है तो पार्टी इसकी पुष्टि करती है। यह कहते हुए कि हां! राहुल जी यदा-कदा ऐसा करते हैं। कांग्रेस पार्टी को इसमें कुछ गलत नहीं लगता। सुल्तान जो ठहरे। कुछ भी कर सकते हैं। अगर राहुल गांधी को ’दूतावास में जाना ही था तो कम से कम गृह मंत्रालय को तो सूचित कर देते। दबे पांव जाने की वजह क्या थी। कहीं ऐसा तो नहीं कि मणिशंकर अय्यर की तर्ज पर चीनी अधिकारियों को यह कहने गये हों कि इन्हें हटाइये हमें ले आइये। डोकलाम का झमेला खत्म कर देगें। या फिर किसी व्यक्तिगत या पारिवारिक मामले के हल की तलाश। बहरहाल जो भी हो मामला गंभीर है। अपरिपक्वता का परिचायक है। कांग्रेस को इसमें भी शायद कुछ गलत न लगे। लेकिन देश ऐसे कदमों की सराहना नहीं कर सकता। इसकी जितनी मर्त्सना की जाये कम है। यदि यह सुल्तानी हरक्कत का हिस्सा है तो देश इस हरकत को नाम भी देगी और अंजाम भी।

       कांग्रेस के नीतिगत फैसले सैलेक्टीव हैं। कश्मीर के एक पत्थरबाज को सुरक्षा बलों ने जीप से बांधकर घुमाया। पत्थरबाजों को कड़ी चेतावनी दी तो सदन में गुलाम नबी साहब ने खूब हंगामा किया। लेकिन पंडित डीएसपी की माब लिचींग पर कांग्रेस मौन हो गयी। आतंकियों की मौत पर तो उसे दर्द होता है। उनके मानवाधिकार की चिंता होती है। लेकिन आतंकियों द्वारा मासूमों की हत्या पर कोई दर्द नहीं होता ऐसा क्यों....अखलाख की मौत पर यदि हंगामा है तो पंडित अयूब की मौत पर सन्नाटा क्यों...अखलाख की मौत की दुर्घटना की तरह दो-चार और दुर्घटनाएं यदि असुरक्षा का माहौल बनाती हैं तो सैकड़ों पंडितों को घाटी में मौत के घाट उतार कर उन्हें बेघर करना सुरक्षा का माहौल कैसे बना सकता है...।

       सच पूछे तो कांग्रेस अंदर से पूरी तरह लकवाग्रस्त हो गयी प्रतीत होती है। जब देश नोटबन्दी के फैसले का स्वागत कर रही थी, तो कांग्रेस की तरफ से राहुल इसके प्रखर विरोध में थे। इनके साथ ममता बनर्जी, अखिलेश, मायावती, केजरीवाल सभी विरोध दर्ज करा रहे थे। इन विरोध करने वालों में सबसे प्रखर बिहार के लालू यादव थे। अलग-लग दलों का होने पर भी नोटबंदी के उन सभी विरोधियों में एक ही समानता थी। वे सब के सब भ्रष्टाचार के आरोपों का दंश झेलने वाले लोग थे। उनके गठबंधन में रहते हुए भी नीतीश ने इस फैसले का समर्थन किया था। मजे की बात है यह कि नीतीश किसी भी तरह के आरोप के घेरे में नहीं है। स्वछ छवि है। शायद इसीलिए समर्थन किया था। अर्थशास्त्रियों ने नोटबन्दी को अच्छा फैसला माना। देश ने इस फैसले का स्वागत किया। फिर राहुल, ममता, मायावती, केजरीवाल, लालू विरोध में क्यों थे...। यह अलग बात है कि नोटबंदी के परिणाम फिलहाल नकारात्मक हैं लेकिन सरकार की नीयत पर कोई उंगली नहीं उठा सकता। नीतीश का गठबंधन से नाता तोड़ना उनपर वज्रपात जैसा था। महागठबंधन के सहारे सत्ता प्राप्ति का ख्वाब सजाने वालों के मंसूबे पर पानी फिर गया। अब नीतीश के खिलाफ बयानबाजी कर खीज मिटाने का दौर चल रहा है। शरद जी कहते हैं नीतीश ने गठबंधन तोड़कर जनता के साथ धोखा किया है। जनता ने गठबंधन के पक्ष में मत दिया था। शरद जी से कोई पूछे कि जनता ने क्या गठबंधन को भ्रष्टाचार की अनुमति भी दी थी। शरद जी को छद्म धर्मनिरपेक्षता की आड़ में भ्रष्टाचार के पोषण और पारदर्शिता एवं स्वच्छता के बीच चयन करना था। उन्होंने झीने पर्दे के नीचे झलकते भ्रष्टाचार को चुना। शरद जी यह भूल गए कि बिहार का चुनाव नीतीश के साफ-सुथरे चेहरा को आगे कर के लड़ा गया था। जनादेश नीतीश की छवि को मिला था। घोटालों के सरताजों को नहीं। गठबंधन के बाकी दोनों घटकों को इसी चेहरे का लाभ मिला था। अब आने वाले चुनावों में महागठबंधन की औकात का पता चल जाएगा। स्वयं उमर अब्दुल्ला स्वीकार कर चुके हैं कि फिलहाल मोदी का कोई विकल्प नहीं है। अभी जनता को विकल्प की तलाश भी नहीं है। मौजूदा राजनैतिक दल क्षेत्रीय दल अगर गठबंधन बनाते भी हैं तो अभी शायद जनता से सशक्त विपक्ष भी न रहने दे। बहरहाल यह तो 2019 में तय होगा। अभी का सच यही है कि वर्तमान सरकार गतिमान है और लोकप्रिय है अतः इसका अगला कार्यकाल निर्बाध नजर आ रहा है। जहां तक कांग्रेस का सवाल है वह अपने सबसे बुरे समय से गुजर रही है। राष्ट्रीय पार्टी होने के बावजूद क्षेत्रीय दलों को उसका नेतृत्व स्वीकार्य नहीं है। राहुल की छवि कहीं से भी गंभीर और जिम्मेवार नेता की नहीं बन सकी है। उनके नेतृत्व में चुनाव जीतने पर स्वयं कांग्रेसी नेताओं तक को भरोसा नहीं है। अन्य दलों की तो बात ही क्या। संकट यह है कि कांग्रेस के पास ले-देकर एक ही परिवार और एक ही नेता है जिसे देशवासी पप्पू मानते हैं। ऐसे में कांग्रेस को यदि अपनी कहानी जारी रखनी है तो उसे परिवारवाद से मुक्ति पानी होगी वर्ना उसकी कहानी अपने अंतिम अध्याय तक पहुंच चुकी है। उसके पुनर्जीवन की रही-सही संभावनाएं भी खत्म हो सकती हैं।

 

 


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