पीके को जदयू की कमान सौंपने का मतलब!
By: Dilip Kumar
10/20/2018 8:52:12 PM
नीतीश कुमार ने चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर को जदयू का उपाध्यक्ष बनाकर पार्टी का दूसरा सबसे ताकतवर नेता बना दिया है। इस क्रम में जदयू के प्रदेश अध्यक्ष वशिष्ठ नारायण सिंह और सांसद आरसीपी सिंह जैसे अपने पुराने और विश्वसनीय सहयोगियों से ज्यादा महत्व दिया। वशिष्ठ नारायण सिंह तो स्वास्थ्य कारणों से पहले की तरह सक्रिय नहीं रह पाए हैं लेकिन आरसीपी सिंह पूरी तरह सक्रिय और विश्वासपात्र लोगों में शामिल हैं। जहां तक प्रशांत किशोर का सवाल है वे तकनीकी ज्ञान से परिपूर्ण हैं। आंकड़ों की बाजीगरी जानते हैं। लेकिन वे जमीनी नेता नहीं हैं। उनका अपना कोई जनाधार नहीं है। वे रणनीति बना सकते हैं।
चुनाव में जीत दिला सकते हैं लेकिन अपने बलबूते कोई चुनाव नहीं जीत सकते। वे राजनीति में नेपथ्य के खिलाड़ी तो हो सकते हैं लेकिन मंच पर कोई भूमिका अदा नहीं कर सकते। उनका चुनावी रणनीतिकार के रूप में उनका सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन 2014 के चुनाव में नरेंद्र मोदी की अप्रत्याशित जीत और प्रधानमंत्री की कुर्सी पर विराजमान होने का मार्ग प्रशस्त करना था। लेकिन इसका उन्हें वह लाभ नहीं मिला जिसकी उन्हें उम्मीद थी। उत्तर प्रदेश विधान सभा के चुनावों में वे कांग्रेस के रणनीतिकार बने। राहुल गांधी की खाट पंचायतों का आयोजन उन्हीं की अवधारणा थी। लेकिन उस चुनाव में उनकी रणनीति पूरी तरह फेल हो गई।
कांग्रेस का प्रदर्शन कमजोर रहा। इसके कारण मोदी के चुनाव में बढ़ा प्रशांत किशोर की लोकप्रियता का ग्राफ धड़ाम से नीचे चला आया। इसके बाद वे नीतीश के करीब आए। यह वह समय था जब नीतीश मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देकर जीतन राम मांझी को अपनी कुर्सी पर बिठ चुके थे। प्रशांत किशोर की रणनीति पर अमल कर वे दुबारा मुख्यमंत्री बने। बिहार विधान सभा चुनाव में भी प्रशांत की रणनीति सफल रही।
जदयू में उनकी उपयोगिता से किसी को इनकार नहीं हो सकता। लेकिन तमाम ज़मीनी नेताओं को नज़र-अंदाज कर उन्हें कदम से दूसरे स्थान पर बिठा देने का कोई तुक नज़र नहीं आता। इससे पार्टी के समर्पित नेताओं के अंदर रोष उत्पन्न हो सकता है। वे जीवन भर पार्टी का झंडा ढोते रहें और आगे बढ़ने का अवसर आए तो किसी पार्टी के बाहर के किसी आयातित व्यक्ति को उनके माथे पर बिठा दिया जाए। यह कोई इंसाफ की बात तो नहीं हुई। यह अलग बात है कि कोई खुलकर बोल नहीं रहा है लेकिन कहीं न कहीं यह भावना पनप रही है। नीतीश ने पूर्व में भी इस तरह के कई निर्णय लिए थे जो संगठन के साथियों को रास नहीं आए थे।
यह परिघटना ऐसे समय में हुई है जब नीतीश सरकार कई मोर्चों पर संकटों में घिरी दिख रही है। बिहार में अपराध के बढ़ते ग्राफ ने सुशासन के दावे पर सवालिया निशान खड़ा कर दिया है। नौकरशाही के अंदर भ्रष्टाचार अपने चरम पर है। बालू की बंदोबस्ती में अड़ियल रवैये के कारण राज्य में निर्माण कार्यों पर नकारात्मक असर पड़ा है। नशाबंदी के बाद शराब का अवैध व्यापार धड़ल्ले से चल रहा है और पुलिस-प्रशासन के बहुत सारे लोग उसको संरक्षण प्रदान कर रहे हैं। चीजें सरकार के नियंत्रण से बाहर होती जा रही हैं।
राजद का नया नेतृत्व उनपर लगातार निशाना साध रहा है और भाजपा के साथ सीटों के तालमेल के सवाल पर झकझुमर की स्थिति बनी हुई है। ऐसे में प्रशांत किशोर जैसे रणनीतिकार एक हद तक उपयोगी हो सकते हैं लेकिन उनकी सेवाएं पुराने सहयोगियों भावनाओं का खयाल रखते हुए भी ली जा सकती थीं। जहां तक प्रशांत किशोर का सवाल है किसी क्षेत्रीय राजनीतिक दल से बंधकर चुनावी रणनीतिकार के रूप में बनी अपनी प्रतिभा में कितना निखार ला सकेंगे यह सवाल उन्हें अपने आप से पूछना चाहिए।