विकल्प की तलाश में बिहार की जनता

By: Dilip Kumar
7/11/2019 7:13:06 PM
नई दिल्ली

बिहार में राजनीतिक उठापटक के बीच राज्य की जनता को एक बेहतर विकल्प की तलाश है। पहले लालू यादव फिर नीतीश कुमार केे शासन को बिहार की जनता ने लगातार देखा है। एक ओर लालू यादव केे शासन को जंगलराज का नाम दिया गया तो दूसरी ओर नीतीश कुमार के शासन को सुशासन का शासन कहा गया। विगत कुछ वर्षों में राजनीति से सूबे की जनता बोर हो रही है। अपने पहले और दूसरे कार्यकाल में जदयू-भाजपा गठबंधन ने राज्य में बेहतर शासन को चलाया। राज्य से अपराधियों को चुन-चुनकर मार भगाया गया।

वहीं पिछले विधानसभा चुनाव में महागठबंधन में शामिल नीतीश कुमार का राजद से जल्द ही मोहभंग हो गया और उसने भाजपा के साथ सरकार चलाना शुरू किया। इसको लेकर बिहार की जनता के मन में यह बड़ा सवाल घर कर गया कि क्या नीतीश कुमार सत्ता के लिए कभी भी पाला बदलने में हिचकने वाले नहीं है। इसे नीतीश कुमार ने जनता के भलाई में उठाया गया कदम बताया। एक समय महागठबंधन में नीतीश कुमार के शामिल होने के बाद लगा था कि बिहार में जदयू और राजद के अलावा भाजपा जनता के सामने एक अच्छा विकल्प हो सकती है क्योंकि नीतीश के साथ उसे दूसरे दर्जे की पार्टी ही लोग मान रहे थे। लेकिन कुछ ही दिनों में नीतीश कुमार का महागठबंधन से मोहभंग हुआ और सूबे की जनता के सामने विकल्प बन रही भाजपा फिर दोयम दर्जे की पार्टी के रुप में सबके सामने आ गया।

पिछले कुछ महीनों से बिहार में क्राइम का स्तर लगातार बढ़ रहा है। रोजाना औसतन दस हत्याएं सामने आ रही है। लेकिन नीतीश बाबू अपने में मस्त डीजीपी को छपास रोग से दूर रहने की सलाह देते दिखे। कुछ दिनों पहले ही सैकड़ों की संख्या में दिमागी बुखार से काल के गाल में समा गए लेकिन नीतीश बाबू के कान पर जूं नहीं रेंगा। वे मस्त होकर अपना कार्य करते रहें। वहीं अगला चुनाव भाजपा नीतीश कुमार के नेतृत्व में ही लडऩे का मन बना रही है। ऐसे में जनता एक कांग्रेस को एक विकल्प के रुप में देख रही है।

कांग्रेस बन सकती है विकल्प

लगातार दो लोकसभा चुनाव हार चुकी कांग्रेस कई मोर्चों पर लड़ाई लड़ रही है। एक तरफ कांग्रेस अध्यक्ष पद से राहुल गांधी ने इस्तीफा दे दिया है तो दूसरी ओर कर्नाटक-गोवा में पार्टी के विधायक लगातार पार्टी छोड़ भाजपा के साथ जा रहे हैं। तेलंगाना हो आंध्र प्रदेश हर जगह भगदड़ मची है। लेकिन इस सब के बीच बिहार में कांग्रेस बिल्कुल शांत दिख रही है। इसके पीछे कई कारण हो सकते हैं लेकिन इसमें से एक बड़ा कारण १९९० से सूबे की राजनीति से बाहर कांग्रेस अपने दम पर विधानसभा चुनाव लडऩे की तैयारी कर रही है। सूत्रों की मानें तो कांग्रेस ने राजद के तेजस्वी यादव के नेतृत्व में चुनाव लडऩे से साफ इंकार कर दिया है। इसके कई मायने निकाले जा सकते हैं। एक समय सवर्ण-दलित-मुस्लिम गठजोड़ को कांग्रेस ने सत्ता में बने रहने के लिए खूब भुनाया लेकिन लालू यादव के शासनकाल से कांग्रेस सिर्फ उसकी पिछलग्गू पार्टी ही बन कर रह गई। आज भी बिहार के सवर्ण-दलित-मुस्लिम अंदरखाने कांग्रेस को अकेले चुनाव लडऩे की सलाह देते दिखते रहे हैं।

लोकसभा चुनाव से ऐन पहले कांग्रेस ने इसके लिए कांग्रेस अध्यक्ष और कार्यकारी अध्यक्षों को इसी गठजोड़ के रुप में देखा गया। लेकिन केंद्र में जनता मोदी को ही पसंद करती है। इसका फायदा कांग्रेस को नहीं मिला। राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो कांग्रेस आने वाले विधानसभा चुनाव में अकेले चुनाव लडऩे का मूड बना सकती है। ऐसे में जनता के सामने कांग्रेस के रुप में एक विकल्प सामने आ सकता है। पिछले ३० वर्षों से राजद,जदयू-भाजपा को जनता देख रही है। ऐसे में इसका लाभ भी पार्टी को मिल सकता है। चुनावी विश्लेषकों की मानें तो कांग्रेस के पास शत्रुघ्न सिन्हा, कीर्ति झा आजाद,मदन मोहन झा जैसे नेता हैं जिसे संगठित कर कांग्रेस अपनी खोई जमीन पा सकती है। लगातार ३० वर्षो से गंगा पार के राजनेता सत्ता पर काबिज हैं। एक समय मिथिलांचल कांग्रेस का गढ हुआ करता था लेकिन कई वर्षों से मिथिलांचल बिहार की राजनीति से लगभग गायब ही दिखा है। ऐसे में सूत्रों की मानें तो कांग्रेस अपनी खोई जमीन पाने के लिए एक बार फिर मिथिला पर फोकस बना सकती है।

पप्पू यादव भी विकल्प

लोकसभा चुनाव हार चुके पप्पू यादव लगातार सूबे में दौरा कर रहे हैं। हर क्षेत्र में वे जनता से रुबरू हो रहे हैं। एक समय दिमागी बुखार से बिहार के बच्चे काल के गाल में समा रहे थे तो दूसरी ओर सरकार और विपक्ष मीडिया से लगातार दूरी बनाए हुए थे। लेकिन जाप पार्टी के संयोजक पप्पू यादव लगातार इसको लेकर मीडिया में सुर्खियां बटोर रहे थे। ऐसे में बिहार की जनता पप्पू यादव की पार्टी जाप पर दांव लगा सकती है।


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