मुसलमानों को हलाल-हराम की सही परिभाषा समझनी चाहिए

By: Dilip Kumar
8/31/2022 8:56:55 AM

विश्व हिन्दू परिषद् के प्रतिष्ठित प्रवक्ता, राम मंदिर के कर्मठ कार्यकर्ता और मेरे पुराने मित्र श्री विनोद बंसलजी ने मुझ से आगृह किया है कि मैं हलाल पर रचित इस ग्रन्थ पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करूं. यह मेरे लिए गर्व की बात है कि मैं इस विषय पर कुछ कहूँ ताकि बात दोनों ओर सफाई से पेश की जाए. इस से पूर्व कि मैं कुछ कहूँ, इस पुस्तक के लेखक के मनोबल को बढ़ाते हुए यह अवश्य बताना चाहूँगा कि इसके लेखक, श्री -------------- ने जिस प्रकार से हलाल के बारे में शोध क्या है, उतना तो मेरे विचार में स्वयं किसी मुस्लिम बुद्धिजीवी या धार्मिक नेता ने भी नहीं किया होगा! बधाईयां! यहाँ मेरा ऐसा सोचना भी है की इस शोध कार्य का अनुवाद अंग्रेजी, उर्दू व अन्य भाषाओँ में भी होना चाहिए क्योंकि इसमें दी गई जानकारी इस से पूर्व किसी अन्य पुस्तक में देखने में नहीं आई. 

हलाल का हलाल दृष्टिकोण 

लेखक ने अपने दर्शन के अनुरूप हलाल और हराम की व्याख्या की है. प्रशंसा की जानी चाहिए कि उन्हें इस्लामी दृष्टिकोण की सटीक जानकारी है. मुस्लिम आचार में हलाल और हराम किस प्रकार से उसका एक अभिन्न अंग है, पुस्तक में उसकी भी चर्चा है. ऐसा नहीं कि पूर्ण मुस्लिम वर्ग हलाल-हराम के फ़र्क को नहीं समझता है मगर इस से परे वह यह देखता है कि प्रतिदिन जीवन में उसे आराम किस बात में मिलता है. उदाहरण के तौर पर मेक-अप, सजने-धजने के हलाल-हराम को लेकर मुस्लिम स्त्रियों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला है क्योंकि युवती किसी भी धर्म की हो, अपने सौंदर्य से कभी भी समझौता नहीं करेगी. वैसे भी अधिकतर मुस्लिम महिलाएं बुर्के को बोझा समझती हैं और पर्दा नहीं करतीं. 80 वर्ष तक की महिलाएं अपने बाल खिज़ाब से काले करती हैं.

 हलाल-हराम और खान-पान 

हाँ, खान-पान में हलाल-हराम का सिलसिला खूब चलता है. यूं तो मैं शाकाहारी नहीं हूँ मगर पूर्ण मांसाहारी भी नहीं हूँ क्योंकि मेरी पत्नी और मेरे बच्चे मांस-मच्छी को छूते भी नहीं. हाँ मेरी पत्नी को मांस पकाना अवश्य आता है. मेरी ओर से कोई दबाव भी नहीं होता इसको लेकर. मेरे बच्चे तो बकरा ईद पर बकरों की क़ुरबानी पर भी बड़ा रोना-धोना करते हैं क्योंकि जिन बकरों के वे खाना खिलते चले आए हैं, उनको कटते नहीं देख सकते. इस बार कोरोना के कारण क़ुरबानी का पैसा ग़रीब लोगों में बाँट दिया गया. वैसे भी में इस बात का ध्यान रखता हूँ कि जब कभी किसी शाकाहारी मित्र के साथ भोजन करता हूँ तो मांस नहीं खाता. यह भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति का हिस्सा है. 

हलाल सूद और निवेश 

हलाल-हराम की बंदिशें निवेश के मामले में या बैंक में ऍफ़ डी के ऊपर मिलने वाले सूद पैर भी वाजिब है. बैंक में जमा राशि पर सूद लेना हराम माना जाता है. हाँ, यदि इस सूद को किसी निर्धन को दे दिया जाए तो इसे हलाल मानना चाहिए. इस्लामी धर्म गुरुओं की इस पर अपनी-अपनी अलग-अलग धारणाएं हैं. वैसे मुस्लिमों को तो हज अनुदान भी हराम समझना चाहिए था जो अपनी तुष्टिकरण की नीति के चलते कांग्रेस मुस्लिमों को देती थी. फिर राजनीतिक पार्टिओं के रोज़ा इफ्तार में मुस्लिम इफ्तारी डकारने क्यों जाते थे? वह भी तो हराम के पैसे की हो सकती थी!

हलाल और कट्टरपंथ 

“इस्लामिक कट्टरपंथी” और हलाल के विषय में मैं यह कहना चाहूँगा कि धर्म कोई भी कट्टरपंथी नहीं होता, हाँ, उसके कुछ अनुयायी अवश्य कट्टरपंथी हो सकते हैं. अतः कुछ मुसलमानों के पगला या सठिया जाने का यह अर्थ नहीं कि सभी ऐसे हैं. अभी हाल ही में दिल्ली में तब्लीघ जमात मरकज़ वालों पर इलज़ाम लगा था की उन्होंने कोरोना फैलाया है तो उस पर कुछ टीवी चैनल पूर्ण मुस्लिम संप्रदाय को आड़े हाथों ले रहा था तो उस पैर मैंने कहा था की सारे जमती मुस्लिम हैं परन्तु सरे मुस्लिम जमती नहीं. 

मुसलमानों के अवैध ठेकेदार 

वास्तव में इस्लाम जो बदनाम हो रहा है, उसका कारण यह है कि इस्लाम की शुद्ध भावना को तोड़-मरोड़ कर बजाए अल्लाह के इस्लाम के ये कट्टरपंथी मुल्ला के इस्लाम में परिवर्तित कर देते हैं. यूं तो आम मुसलमान उदारवादी हैं मगर खुलकर बोलने की हिम्मत उनमें नहीं क्योंकि उनपर ढक्कन कसने वाले कुछ मुस्लिम ठेकेदार, जैसे ओवैसी बंधु आज़म खान आदि और टीवी पर दहाड़ने वाले उनके चेले जो उनकी मासूमियत का लाभ उठा कर उन्हें वोट बैंक बना कर अपनी दुकानदारी करते हैं. 

हराम-हलाल और क़ुरान की आयतें 

हलाल-हराम को लेकर इस पुस्तक में क़ुरान के हवाले से जो कहा गया है कि गाय को काटो तो इसका जो दूसरा रुख है वह बिलकुल नज़र अंदाज़ कर दिया गया कि हजरत मुहम्मद ने गाय के सम्बन्ध में कहा था: “गाय का दूध नेमत है और इसका गोश्त ज़हर है.” इस के अतिरिक्त दारुल उलूम देवबन्द लगभग हर ईद-उज़-जुहा (बकरा ईद) पर फतवा देता है की गाय की कुर्बानी न करें क्योंकि इस से बिरादरान-ए-वतन अर्थात हिन्दू भाईयों की दिल आजारी (दिल दुखना) होती है. यही नहीं, बहादुरशाह ज़फर ने भी एक फरमान निकाला था की गाय का वध न क्या जाए क्योंकि हिन्दू भाई इसे अपनी माता मानते हैं. यदि फिर भी कुछ मुस्लिम ऐसा करते हैं और अपने हिन्दू भाईयों के दिल दुखाते हैं तो वह इस्लामी रवादारी के विरुद्ध है क्योंकि हजरत मुहम्मद ने कहा था की उनके निकट सबसे बड़ा गुनाह किसी का दिल दुखाना है. 

राष्ट्रीय समरसता वास्तव में सही हलाल! 

एक अन्य तथ्य यह है कि भारत में सदियों से हिन्दू और मुसलमान साझा विरासत को मानते चले आए हैं. उनका धर्म भले ही इस्लाम हो मगर उनके सामाजिक रहन-सहन, खान-पान, शादी-ब्याह आदि जैसे रोज़मर्रा के उद्गार हिन्दुओं जैसे ही होते हैं. एक बंगाल का मुसलमान सामाजिक तौर से एक बंगाली हिन्दू से अधिक क़रीब होगा बनिस्बत एक महाराष्ट्रिय मुस्लिम के क्योंकि उसका पहनावा, भोजन आदि सभी बंगाली हिन्दू जैसा होगा न कि महाराष्ट्रिय मुस्लिम जैसा. इसी को हम “नेशनल कल्चरिज्म” राष्ट्रीय समरसता कहते है जिसके कारण हमारा एक भारत, श्रेष्ठ भारत है. 

हत्या का बदला हत्या हराम 

अब इस पुस्तक में बात आती है, हत्या का बदला हत्या, हलाल होना जिसका हवाला भी क़ुरान से दिया गया हे. देखिए, इस प्रकार की २४ आयतें प्रसिद्ध हैं, जिनमें कुछ एक इस पुस्तक में दी गई हैं. वैसे भी इस्लाम में एक बेकुसूर की हत्या का अर्थ है, पूर्ण समाज की हत्या! ये १४०० वर्ष पूर्व के उस समय की हैं जब लगातार युद्ध होते थे और समाज में आपसी भाईचारा और समरसता नहीं होते थे. आज ऐसा नहीं है और समय के साथ मुस्लिम भी बदला है और जिस समाज के साथ वह रहता है उसी को अपना लेता है. क़ुरान बेशक मुसलमानों का विशिष्ट ग्रन्थ है और रहेगा मगर समस्या यहाँ क़ुरान या इस्लाम के साथ नहीं बल्कि मुसलमानों के साथ है जो क़ुरान और पैग़म्बर के लिए जान लेने और देने को आतुर होते हैं मगर उनके रास्ते पर चलने को तैयार नहीं. अधिकतर मुस्लिम आजकल अल्लाह के नहीं बल्कि मुल्ला वाले इस्लाम के साथ है. 

लूट हराम है 

रही बात युद्ध में जीते हुए धन के हलाल होने की तो इस पैर भी मेरी टिपण्णी यह है कि लूट-पाट का इस्लाम में कोई स्थान नहीं है बल्कि क़ुरान की ही एक आयत कहती है की हर एक के साथ रहम का मामला करो. जंग में महिलाओं, वृद्धों और बच्चों को वध न करो. बात फिर वहीँ आ जाती है की कौनसी आयत को समझने वाले ने कैसे समझा है या ढाला है. हमारे जैसे मुसलमान जो केवल अल्लाह, हजरत मुहम्मद और क़ुरान पर हिज विश्वास करते हैं, जानते हैं की मतलबी लोगों ने अलग-अलग इस्लाम की ढलाई कर राखी है.

 बलपूर्वक धर्मान्तरण हराम 

एक और आयत का यहाँ ज़िक्र करता चलूं जिस्ता ज़िक्र इस पुस्तक में नहीं है कि ग़ैर मुस्लिम को या तो इस्लाम कुबूल करवाओ या उसकी गर्दन मार दो. इसी के साथ एक और नोट करने वाली आयत है, “लकुम दीनोकुम वले यदीन,” अर्थात, “हमें हमारा धर्म मुबारक, तुम्हें तुम्हारा धर्म मुबारक.” इसी प्रकार से जो लोग बलपूर्वक धर्म परिवर्तन करते हैं, इस्लाम में पूर्ण रूप से उसकी मनादी है, जैसा कि इस आयत में दिया गया है, “ला इक्राहा फिद्दीन,” अर्थात, धर्म के मामले में ज़बरदस्ती हरगिज़ नहीं. समस्या यही है कि जिस प्रकार से मुल्ले-पण्डे वर्ग ने हिन्दू-मुस्लिम धर्म पर अपना वर्चस्व जमाया हुआ है, उससे भारतीय समाज में विघटन हो रहा है. 

इस्लाम, हलाल और आतंकवाद 

पुस्तक में लगभग एक अध्याय इस बारे में है कि हलाल वाला पैसा आतंकवाद में प्रयुक्त हो रहा है. जो मुस्लिम ऐसा कर रहा है, वह मुस्लिम हैं ही नहीं क्योंकि आतंकवाद का जैसे किसी अन्य धर्म में कोई स्थान नहीं है, वैसे ही इस्लाम में भी नहीं. ८वीं शताब्दी में बड़ी सफाई के साथ उस समय के बड़े इमाम, इमाम गज़ाली ने रक्त-पात में लिप्त मुसलमानों से कहा था की यदि मुसलमान आतंकवाद को समाप्त नहीं करेंगे तो आतंकवाद उन्हें समाप्त करदेगा. जिस प्रकार से भटके हुए मुस्लिम आतंकवादी हमलों में लिप्त पाए गए उससे इस्लाम पैर ऐसी लांछन लगी कि आज विश्व में मुसलमानों का कोई नाम ही नहीं सुनना चाहता. आखिर और भी कौमें दुनिया में रहती हैं, मगर उनपर तो आतंकवाद का ठप्पा नहीं लगता. अपने ऊपर आतंकवाद का ठप्पा लगने के लिए खुद मुसलमान ज़िम्मेदार हैं भले ही आतंकवाद में बहुत छोटी संख्या लिप्त हो. जो ग़लत है, वह हमेशा ग़लत ही कहलाएगा. पुस्तक में आतंकवाद और हलाल के पैसे को लेकर किसी अमेरिकन पाकिस्तानी एन आर आई तहव्वुर राणा का उदाहरण दिया गया है जोकि हलाल प्रमाणित बूचडखाना चलाता कि २६/११ के मुंबई हमलों में उसने लश्कर-ए-तयबा आतंकी संगठन को पैसा भेजा और इसके चलते वह गिरफ्तार भी हुआ. यह हरगिज़ भी मान्य नहीं है.

 शाकाहार भोजन मांसाहार से बेहतर 

पुस्तक में यह भी कहा गया है कि हलाल के स्थान पर झटका मांस को बढ़ावा दिया जाना चाहिए. ये अजीब सी बात है क्योंकि जब हलाल से आपत्ति है तो झटका से भी बराबर से आपत्ति होनी चाहिए क्योंकि जानवर तो दोनों सूरतों में कष्ट भोगता है और जान से हाथ धोता है. यहाँ पुस्तक के लेखक को जोर इस बात पर डालना चाहिए कि माँसाहारी लोगों को शाकाहारी भोजन की ओर लौटना चाहिए क्योंकि मात्र ज़बान के चटखारे के लिए मांस खाना और फिर उसके लिए जानवरों का वध करना ठीक नहीं. लेखा को मिस बात पर भी जोर डालना चाहिए कि बहुत से पश्चिमी देशों विशेष रूप से अमेरिका और कनाडा में अब जनता शाकाहार को अपना रही है क्योंकि मांसाहार द्वारा काफी रोग लगते हैं. इसका कितना प्रभाव पड़ेगा मांसाहारियों पैर, यह तो समय ही बताएगा मगर यह पक्का है कि मांस का कारोबार भारत में लगभग ७० हज़ार करोड़ का है जिसके बड़े व्यापारिओं में हिन्दू-मुस्लिम एकता है! 

हिन्दुओं से रिश्ते, पुल बनाने की आवश्यकता 

लॉकडाउन के चलते इसमें कमी अवश्य आई है फिर भी धड़ल्ले से चल रहा है. वास्तव में यहाँ समस्या मांसाहार को लेकर इनती नहीं जितनी की इस कारोबार के पैसे का आतंकवाद व भारत विरोधी गतिविधियों में होना. मुस्लिमों को हलाल-हराम की सही समझ रखते हुए दुसरे तबक़ों के लोगों के साथ पुल और रिश्ते बनाने चाहिएं क्योंकि हिन्दू समाज से अधिक सहनशील दूसरी कोई कौम नहीं. यदि आह के मुसलमान इस सच्चाई को समझ लें तो लगभग सभी हिन्दू-मुस्लिम समस्याओं का समाधान हो जाए.

 

 

फ़िरोज़ बख्त अहमद

पूर्व कुलाधिपति

मौलाना आज़ाद राष्ट्रीय उर्दू विश्विद्यालय, हैदराबाद 

ए-२०२ (प्रथम तल) अदीबा मार्किट एंड अपार्टमेंट्स ,

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