विकास का मार्ग अवरूद्ध करते हैं दंगे      

By: Dilip Kumar
10/22/2016 1:26:22 PM

पिछले एक दशक के दौरान देश में कई जगह सांप्रदायिकता की आग झुलसी। जब आग शांत होती है तो भरोसा, संबंध और शांति तो नष्‍ट हो ही चुकी होती है, देश का विकास भी बेपटरी हो जाता है। लोग ढर से पलायन करते हैं, उनके रेाजगार धंघें चैपट होते हैं और इसका असर देश की अर्थ व्यवस्था तथा गरीबी से लड़ने की सरकारी योजनाओं पर भयंकर रूप् से विपरीत होता है। कई जगह सालों बाद भी अविश्‍वास  की खाई इतनी गहरी है कि वे लोग जो सन 47 में विभाजन के समय ताकत से यह कहते हुए खड़े थे कि हमारा मादरे-वतन यही है और हम वहां क्यों जाएं, वे भी घरों से दूर कहीं चले गए हैं। दंगाईयों का डर और पुलिस का खौफ, देानेां ही टूटे भरोसे की सभी सीमाएं पार कर चुका है। दंगे भड़कने में कौन सियासती रोटी सैंक रहा है और किसकी लापरवाही है, यह सभी जानते हैं लेकिन इस सच को ना तो कोई आयोग और ना ही कोई जांच एजेंसी न्याय की चौौखट तक ले जा पाएगी, क्योंकि हर बार की तरह इन दंगों का भी अपना अर्थशास्त्र है।

पंकज चतुर्वेदी 

पश्चिमी उ.प्र के दंगे हाेंें या बरेली- सहारनपुर , बिसाहडा के या दिल्ली के दंगे के आरोपी जल्दी ही जेल से बाहर होते  हैं और पीड़ित अपने पुश्‍तैनी घर-गांव लौटना नहीं चाहते और शायद दंगाई भी यही चाहते थे। हर दंगाग्रस्त इलाके में बस निराशा, हताशा के बीज पलते हैं उसके मूल में उनका बेराजगार होना ही है। किसी की दुकान जल गई तो किसी के कारखाने या वर्कशाप, कई अपने खेत तक नहीं जा पा रहे हैं तो बहुत से लोग जातिय नफरत के चलते मजदूरी से भी मरहूम हैं। वैसे अतीत का हर जख्म गवाह है कि जब कभी दंगे हुए है हिंदुओं में मेहनतकश वर्ग और मुसलमान बेराजगार हुआ और उसने पलायन किया है ‘‘अपनो’’ के बीच किसी मलिन बस्ती में । यह भी तथ्य है कि भारत में हिंदू और मुसलमान गत् 1200 वर्षों से साथ-साथ रह रहे हैं। डेढ़ सदी से अधिक समय तक तो पूरे देश पर मुगल यानी मुसलमान शासक रहे।

पूरे देश के हर गांव-कस्बे में 500वीं पूर्व ईस्वी से ले कर आज तक के हजारों-हजार मंदिर हैं। यदि आम मुसलमान इतना की कट्टर मूर्ति भंजक होता तो डेढ़ सौ क्या डेढ़ साल काफी होता पूरे मंदिर ढहाने के लिए। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि सबसे कट्टर कहे जाने वाले मुगल बादशाह औरंगजेब ने देशभर में कई मंदिरों को सरकारी इमदाद व जायदाद के पट्टे/सनद बांटे थे। इस बात को समझना जरूरी है कि 1857 की क्रांति के बाद अंग्रेजों को यह पता चल गया था कि इस मुल्क में हिंदू और मुसलमानों के आपसी ताल्लुक बहुत गहरे हैं और इन दोनों के साथ रहते उनका सत्ता में बना रहना मुश्किल है। एक साजिश के तहत 1857 के विद्रोह के बाद मुसलमानों को सताया गया, अकेले दिल्ली में ही 27 हजार मुसलमानों का कत्लेआम हुआ। अंग्रेज हुक्मरान ने दिखाया कि हिंदू उनके करीब है।। लेकिन जब 1870 के बद हिंदुओं ने विद्रोह के स्वर मुखर किए तो अंग्रेज मुसलमानों को गले लगाने लगे। यही फूट डालो और राज करो की नीति इतिहास लेखन, अफवाह फैलाने में काम आती रही।

यह तथ्य भी गौरतलब है कि 1200 साल की सहयात्रा में दंगों का अतीत तो पुराना है नहीं। कहा जाता है कि अहमदाबाद में सन् 1714, 1715, 1716 और 1750 में हिंदू मुसलमानों के बीच झगड़े हुए थे। उसके बाद 1923-26 के बीच कुछ जगहों पर मामूली तनाव हुए । सन् 1931 में कानपुर का दंगा भयानक था, जिसमें गणेश शंकर विद्यार्थी की जान चली गई थी। खूनी दंगों की शुरुआत 16 अगस्त 1946 से कही जा सकती है। दंगें क्यों होते हैं? इस विषय पर प्रो. विपिन चंद्रा, असगर अली इंजीनियर से ले कर सरकार द्वारा बैठाए गए जांच आयोगों की रिपोर्ट तक साक्षी है कि झगड़े ना तो हिंदुत्व के थे ना ही सुन्नत के। कहीं जमीनों पर कब्जे की गाथा है तो कहीं वोट बैंक तो कहीं नाजायज संबंध तो कहीं गैरकानूनी धंधे। सन् 1931 में कानपुर में हुए दंगों के बाद कांग्रेस ने छह सदस्यों का एक जांच दल गठित किया था। सन् 1933 में जब इस जांच दल की रिपोर्ट सार्वजनिक की जानी थी तो तत्कालीन ब्रितानी सरकार ने उस पर पाबंदी लगा दी थी। उस रिपोर्ट में बताया गया था कि सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और राजनीतिक विविधताओं के बावजूद सदियों से ये दोनों समाज दुर्लभ सांस्कृतिक संयोग प्रस्तुत करते आए हैं।

उस रिपोर्ट में दोनों संप्रदायों के बीच तनाव को जड़ से समाप्त करने के उपायों को तीन वर्गों में विभाजित किया गया था -धार्मिक-शैक्षिक, राजनीतिक-आर्थिक और सामाजिक। उस समय तो अंग्रेजी सरकार ने अपनी कुर्सी हिलती देख इस रिपोर्ट पर पाबंदी लगाई थी। आज कतिपय राजनेता अपनी सियासती दांवपेंच को साधने के लिए उस प्रासंगिक रिपोर्ट को भुला चुके हैं। यह जानना जरूरी है कि वैचारिक या सांप्रदायिक हिंसा केवल भारत की ही समस्या नहीं है, मिश्रित समाज के देशों, विशेषकर तीसरी दुनिया के देशों का यह चरित्र बन गई है।2 पूरा दक्षिण एशिया इस त्रासदी का शिकार है। पाकिस्तान में मुहाजिर, शिया-सुन्नी टकराव है तो श्रीलंका में तमिलों के। मालदीव जैसा देश भी हिंसक टकरावों को झेल रहा है। विकास का पहिया जब तेज घूमता है तो अल्पसंख्यक, गरीब इसकी चपेट में सबसे पहले आते हैं, परिणाम स्वरूप वे कुछ आक्रामक हो जाते हैं। ऐसे में संसाधनों पर कब्जा किए बैठे सभ्रांत वर्ग को इन शोषितों के गुस्से का यदा-कदा सामना करना पड़ता है और यही दंगे या टकरावों का गणित है।

यह भी समझ लेना चाहिए कि दंगों की जड़ धर्म या संप्रदाय नहीं, बल्कि आर्थिक-सामाजिक कारण हैं। उड़ीसा की कुल आबादी (2001 जनगणना) 36,804,660 है, इसमें ईसाई महज 897861 हैं, यानी कुल आबादी का ढ़ाई फीसदी भी नहीं। ज़ाहिर है कि ईसाई इतने कम हैं कि उनसे किसी तरह के खतरे का डर हिंदुओं में नहीं होना चाहिए। लेकिन अगस्त-सितंबर-2008 के दौरान उड़ीसा के कंधमाल जिले में केंद्रीय बलों की मौजूदगी के बावजूद ईसाईयों के घरों, पूजा स्थलों, संपत्तियों को आग के हवाले किया जाता रहा। इस हिंसा में कई लोग मारे गए और हमलों से भयाक्रांत ईसाई लोग जंगलों में छिप कर जीवन काटते दिखे। अखबारी बयानबाजी से तो यही मालूम होता है कि ईसाई मिशनियरियों द्वारा जबरन धर्मांतरण से आक्रोशित कतिपय हिंदुवादी संगठन ये हमले कर रहे हैं। हिंदुवादी संगठनों का दावा है कि यह स्थानीय जनता का ईसाईयों के धार्मिक-दुष्प्रचार के विरोध में गुस्सा है। लेकिन हकीकत और कहीं दबी हुई थी-कंधमाल में ‘पाना’ नामक एक दलित जाति का बाहुल्य है। बेहद गरीब, अशिक्षित और शोषित रहे हैं पाना लोग। कुछ दशकों पहले ‘पाना’ लोगों के ईसाईयत को स्वीकार करना शुरू किया तो उनकी शैक्षिक और आर्थिक हालत सुधरने लगी। इसका सीधा असर उन साहूकारों और सामंतों पर पड़ा, जिनकी तिजोरियां ‘पानाओं’ की अशिक्षा व नादानी से भरती थीं।यह घटना गवाह है कि दंगे के निहितार्थ और कहीं होते हैं। गुजरात के दंगों में योजनाबद्ध तरीके से व्यवसायिक प्रतिद्वंदियों ने मुसलमानों की दुकानें बरबाद की। जरा याद करें 27 फरवरी 2002 को साबरमती एक्सप्रेस में 50 कार सेवकों (25 महिलाएं व 15 बच्चे) को जिंदा जला देने के बाद गुजरात के 25 में से 16 जिलों के 151 शहर और 993 गांवों में मुसलमानों पर योजनाबद्ध हमले हुए।

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इन दंगों  में कुल 1044 लोग मारे गए, जिनमें 790 मुसलमान और 254 हिंदू थे। यहां व्यापारी वर्ग के डरपोक कहे जाने वाले ‘बोहरों’ के व्यवसाय-दुकानों का निशाना बना कर फूंका गया। मुसलमानों की होटलांे, वाहनों को बाकायदा नक्षा बना कर नश्ट किया गया, बाद में पता चला कि असल खुन्नस तो व्यापारिक प्रतिद्वंदिता की थी, जिसे  सांप्रदायिक रंग दे दिया गया। यह बात ब और पुख्ता हो गई जब दंगों के बाद गुजरात के गांवों में मुसलमानेां की दुकानों से सामान ना खरीदन जैसे पर्चें बांटे गए। उत्तर प्रदेश में कई बार दंगों की वजह सरकारी संपत्ति पर कब्जा कर रही है। कष्मीर में पंडितो को जबरिया भगाने के पीछे भी अलगावादियों की ऐसी ही व्यापारिक मंषाएं रही हैं। मुसलमान ना तो नौकरियों में है ना ही औद्योगिक घरानों में, हां हस्तकला में उनका दबदबा जरूर है। लेकिन विडंबना है कि यह हुनरमंद अधिकांश जगह मजदूर ही हैं। यदि देश में दंगों को देखें तो पाएंगे कि प्रत्येक फसाद मुसलमानों के मुंह का निवाला छीनने वाला रहा है।

भागलपुर में बुनकर, भिवंडी में पावरलूम, जबलपुर में बीडी, मुरादाबाद में पीतल, अलीगढ़ में ताले, मेरठ में हथकरघा..., जहां कहीं दंगे हुए मजदूरों के घर जलें, उनमे कुटीर उद्योग चैपट हुए। एस. गोपाल की पुस्तक ‘‘द एनोटोमी आॅफ द कन्फ्रंटेशन’’ में अमिया बागछी का लेखन इस कटु सत्य को उजागर करता है कि सांप्रदायिक दंगे मुसलमानों की एक बड़ी तादाद को उन मामूली धंधों से भी उजाड़ रहे हैं जो उनके जीवनयापन का एकमात्रा सहारा है। (प्रिडेटरी कर्मशलाईजेशन एंड कम्यूनिज्म इन इंडिया)। गुजरात में दंगों के दौरान मुसलमानों की दुकानों को आग लगाना, उनका आर्थिक बहिष्कार आदि गवाह है कि दंगे मुसलमानों की आर्थिक गिरावट का सबसे कारण है। पश्चिमी उप्र के दंगां के बाद इलाके में गन्ने की खेती, गुड़ बनाने का काम और तो और किसान आंदंोलनों में नारों की बुलंदी भी गायब हो गई, इसका असर यहां की अर्थ व्यवस्था और सामाजिक ताने-बाने पर गंहरे तक पड़ा है। दंगे मानवता के नाम पर कलंक हैं। धर्म, भाषा, मान्यताओं, रंग जैसी विषमताओं के साथ मत-विभाजन होना स्वाभाविक है। लेकिन जब सरकार व पुलिस में बैठा एक वर्ग खुद सांप्रदायिक हो जाता है तो उसकी सीधी मार निरपराध, गरीब और अशिक्षित वर्ग पर पड़ती है।


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