''ट्रिपल तलाक'' का मुद्दा समान नागरिक संहिता से अलग

By: Dilip Kumar
10/22/2016 2:25:34 PM

"सुप्रीम कोर्ट के समक्ष मुद्दा केवल ट्रिपल तलाक की संवैधानिक वैधता के संबंध में है। अतीत में सरकारें, पर्सनल लॉ को मौलिक अधिकारों का पालन करना चाहिए, यह स्टैंड लेने से बचती रही हैं। वर्तमान सरकार ने एक स्पष्ट रुख इख्तियार किया है। समान नागरिक संहिता के संबंध में व्यापक बहस होनी चाहिए। यह मानते हुए कि हरेक समुदाय का अपना अलग पर्सनल लॉ है, सवाल यह है कि क्या उन सभी पर्सनल लॉ को संवैधानिक रूप से मान्य नहीं होना चाहिए?"

- अरुण जेटली

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संवैधानिक वैधता की दृष्टि से 'ट्रिपल तलाक' का मुद्दा समान नागरिक संहिता से अलग है। भारत के संविधान के निर्माताओं ने राज्य के नीति निर्देशक तत्व के द्वारा यह आशा व्यक्त की थी कि समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए प्रयत्न किये जायेंगे। सर्वोच्च न्यायालय ने कई अवसरों पर सरकार से अपना रुख इस मुद्दे पर साफ़ करने को कहा है। सरकार ने बार-बार न्यायालय और संसद को बताया है कि पर्सनल लॉ को प्रभावित हितधारकों के साथ विस्तृत विचार विमर्श के बाद ही संशोधित किया जाता है। समान नागरिक संहिता के मुद्दे पर विधि आयोग ने एक बार फिर से एक व्यापक चर्चा की शुरुआत कर दी है। विधि आयोग द्वारा इस पर चर्चा और प्रगति संविधान सभा के राज्यों द्वारा एक समान नागरिक संहिता के प्रयास की आशा व्यक्त करने के बाद से चल रही बहस की कड़ी का मात्र एक हिस्सा भर है।

विभिन्न समुदायों के पर्सनल लॉ के अंदर सुधारों के सम्बन्ध में एक प्रासंगिक सवाल तो उठता ही है, भले ही समान नागरिक संहिता आज संभव है या नहीं। पंडित जवाहर लाल नेहरू ने विधायी परिवर्तनों के माध्यम से हिन्दू पर्सनल लॉ में कई प्रमुख सुधार किये थे। डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार ने अविभाजित हिन्दू परिवार में लैंगिक समानता के संबंध में और विधायी परिवर्तन किये। श्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने हितधारकों के साथ सक्रिय विचार-विमर्श के बाद लैंगिक समानता लाने के सम्बन्ध में ईसाई समुदाय से संबंधित विवाह एवं तलाक के प्रावधानों में संशोधन किया। पर्सनल लॉ में सुधार एक सतत प्रक्रिया है भले ही इसमें एकरूपता न हो। समय के साथ, कई प्रावधान पुराने और अप्रासंगिक हो गए हैं, यहां तक कि बेकार हो गए हैं। सरकारें, विधान-मंडल और समुदायों को एक बदलाव की जरूरत के लिए जवाब देना ही होगा।

जैसे-जैसे समुदायों ने प्रगति की है, लैंगिक समानता का महत्त्व और अधिक महसूस हुआ है। इसके अतिरिक्त इसमें कोई दो राय नहीं कि सभी नागरिकों, विशेष रूप से महिलाओं को गरिमा के साथ जीने का अधिकार है। क्या पर्सनल लॉ, जो प्रत्येक नागरिक के जीवन को प्रभावित करता है, को समानता और गरिमा के साथ जीने का अधिकार के इन संवैधानिक मूल्यों के अनुरूप नहीं होना चाहिए? एक रूढ़िवादी दृष्टिकोण को छह दशक पहले न्यायिक समर्थन मिला कि पर्सनल लॉ वैयक्तिक अधिकार के साथ असंगत हो सकता है। ट्रिपल तलाक के केस में सरकार का हलफनामा इस उद्भव को मान्यता देता है।

धार्मिक प्रथाओं, रीति-रिवाजों और नागरिक अधिकारों के बीच एक बुनियादी अंतर है। जन्म, गोद लेने, उत्तराधिकार, विवाह, मृत्यु के साथ जुड़े धार्मिक कार्य मौजूदा धार्मिक प्रथाओं और रीति-रिवाजों के अनुसार संपन्न किये जा सकते हैं। क्या जन्म, गोद लेने, उत्तराधिकार, विवाह, तलाक आदि से उत्पन्न अधिकारों को धर्म के द्वारा निर्देशित किया जाना चाहिए या फिर संवैधानिक गारंटी के द्वारा? क्या इनमें से किसी में भी मानवीय गरिमा के साथ असमानता या समझौता किया जा सकता है? कुछ लोग अप्रासंगिक नहीं, तो भी एक रूढ़िवादी दृष्टिकोण रख सकते हैं कि कानून की पर्सनल लॉ में दख़लंदाज़ी नहीं होनी चाहिए। सरकार का नजरिया स्पष्ट है। पर्सनल लॉ को संवैधानिक के हिसाब से होना चाहिए और इसलिए, तीन तलाक के रिवाज को भी समानता और गरिमा के साथ जीने के मापदंड पर ही आंकना होगा। ये कहने की जरूरत नहीं कि दूसरे पर्सनल लॉ पर भी यही पैमाना लागू होता है।

आज के दिन, सुप्रीम कोर्ट के समक्ष मुद्दा केवल ट्रिपल तलाक की संवैधानिक वैधता के संबंध में है। अतीत में सरकारें, पर्सनल लॉ को मौलिक अधिकारों का पालन करना चाहिए, यह स्टैंड लेने से बचती रही हैं। वर्तमान सरकार ने एक स्पष्ट रुख इख्तियार किया है। समान नागरिक संहिता के संबंध में व्यापक बहस होनी चाहिए। यह मानते हुए कि हरेक समुदाय का अपना अलग पर्सनल लॉ है, सवाल यह है कि क्या उन सभी पर्सनल लॉ को संवैधानिक रूप से मान्य नहीं होना चाहिए?

 

 


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