नीतीश−अजित एका और चौथे मोर्चे की चर्चा

By: Dilip Kumar
10/22/2016 2:33:00 PM

"सपा, बसपा और कांग्रेस के साथ दाल नहीं गलती देख, जदयू नेताओं ने छोटे−छोटे दलों को एक करके महागठबंधन का सपना देखना शुरू कर दिया, लेकिन यहां भी सफलता हाथ नहीं लगी। ऐसे में यूपी में पैर जमाने के लिये हाथ−पैर मार रहे नीतीश के लिये अजित सिंह की पार्टी 'राष्ट्रीय लोकदल' के साथ गठबंधन 'डूबते के लिये तिनके का सहारा' साबित हो सकता है। इस गठबंधन के सहारे जाट बाहुल्य पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भले ही अन्य दलों के सियासी समीकरण थोड़े−बहुत प्रभावित होते नजर आ रहे हों, लेकिन इसी के साथ यह भी तय हो गया है कि नीतीश की जदयू अब पूरे प्रदेश में शायद ही अपनी उपस्थिति दर्ज करा पाये।"

- अजय कुमार

गठबंधन की राजनीति के सहारे पूरे देश में भाजपा का विकल्प बनने के लिये बिहार से बाहर जनाधार बढ़ाने को बेताब जनता दल (यूनाईटेड) नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को उत्तर प्रदेश में न समाजवादी पार्टी ने कोई तवज्जो दी और न बसपा ने हाथ रखने दिया, जिस कांग्रेस को महागठबंधन के सहारे बिहार विधान सभा में सम्मानजनक स्थिति हासिल हुई थी, उसने भी जदयू को ठेंगा दिखा दिया। सपा, बसपा और कांग्रेस के साथ दाल नहीं गलती देख, जदयू नेताओं ने छोटे−छोटे दलों को एक करके महागठबंधन का सपना देखना शुरू कर दिया, लेकिन यहां भी सफलता हाथ नहीं लगी।

ऐसे में यूपी में पैर जमाने के लिये हाथ−पैर मार रहे नीतीश के लिये अजित सिंह की पार्टी 'राष्ट्रीय लोकदल' के साथ गठबंधन 'डूबते के लिये तिनके का सहारा' साबित हो सकता है। इस गठबंधन के सहारे जाट बाहुल्य पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भले ही अन्य दलों के सियासी समीकरण थोड़े−बहुत प्रभावित होते नजर आ रहे हों, लेकिन इसी के साथ यह भी तय हो गया है कि नीतीश की जदयू अब पूरे प्रदेश में शायद ही अपनी उपस्थिति दर्ज करा पाये। गठबंधन की राजनीति में माहिर नीतीश और अजित सिंह दोनों ही राष्ट्रीय परिदृश्य को ध्यान में रखते हुए यूपी में सपा−बसपा से बड़ा दुश्मन भाजपा को मानते हैं। इस दुश्मनी की जद में रालोद से अधिक जदयू की सियासत और नीतीश की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से अदावत छिपी हुई है।

नीतीश और मोदी के बीच की अदावत मात्र दो उदाहरणों से समझी जा सकती है। 2014 के लोकसभा चुनाव से करीब डेढ़ वर्ष पूर्व तक ऐसा लग रहा था कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) संयुक्त रूप से यूपीए को चुनौती देगा, उस समय एनडीए में नीतीश कुमार एक ऐसा चेहरा थे जिनको लोग विकास बाबू की संज्ञा देते थे और अल्पसंख्यकों को भी उनके नाम पर कोई एतराज नहीं होता, लेकिन ऐन मौके पर भाजपा मोदी के पीछे चल दी और नीतीश कुमार हाथ मलते रह गये। बुरी तरह से खीजे जदयू यानी नीतीश ने एनडीए से नाता तोड़ लिया और अपने दम पर लोकसभा चुनाव लड़ने की तैयारी कर ली, परंतु मोदीमय देश में उनकी एक नहीं चली। नीतीश तिलमिला कर रह गये। उसी दिन से नीतीश ने मोदी को सबसे बड़ा दुश्मन मान लिया।

लोकसभा चुनाव के करीब साल भर बाद बिहार चुनाव हुए यहां नीतीश−लालू और कांग्रेस महागठबंधन के सामने मोदी का मैजिक नहीं चल पाया। इसी के बाद नीतीश अपने आप को देश का भावी प्रधानमंत्री समझने लगे और इसके लिये उन्होंने गैर भाजपाई दलों से हाथ मिलाने की कोशिश भी शुरू कर दी, लेकिन पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी, ओडिशा में बीजू पटनायक, यूपी में मुलायम सिंह और मायावती तथा तमिलनाडु में जयललिता ने उन्हें कोई तवज्जो नहीं दी। इसी के बाद से नीतीश यूपी में अपनी ताकत बढ़ा कर पूरे देश में गैर भाजपाई दलों के बीच एक संदेश देने में जुटे हुए हैं कि नीतीश से बेहतर कोई नहीं।

बहरहाल, यूपी में रालोद−जदयू गठबंधन के साथ यह भी तय कर दिया गया है कि रालोद नेता और चौधरी अजित सिंह के पुत्र जयंत चौधरी गठबंधन के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे। कहा यह जा रहा है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लोकदल के अलावा बीएस−फोर (बहुजन स्वाभिमान संघर्ष समिति) जैसे छोटे दलों का साथ मिलने से पश्चिम उप्र के अलावा प्रदेश के अन्य क्षेत्रों में भी छोटे−छोटे क्षेत्रीय दलों से गठजोड़ को ताकत मिलेगी। पिछले कई चुनावों में कुछ खास नहीं कर पा रहे रालोद नेताओं के लिये भी यह गठबधंन किसी सियासी संजीवनी बूटी से कम नहीं होगा। गठबंधन के बाद बागपत के बड़ौत में अजित सिंह 'किसान मजदूर स्वाभिमान रैली' में भारी भीड़ जुटा कर राजनैतिक पंडितों को अपनी ताकत का अहसास करा चुके है। बड़ौत रैली कामयाब होने के बाद रालोद नेता कहने भी लगे हैं कि प्रदेश में अब चौथा मोर्चा बनने का मार्ग प्रशस्त होगा।

जनता बसपा, सपा और भाजपा से अलग विकल्प चाहती है। जदयू−रालोद गठजोड़ सशक्त विकल्प साबित होगा। किसान नेता और पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह व समाजवादी नेता और चिंतक डॉ. राम मनोहर लोहिया की विचारधारा के लोगों को एकजुट करने के पहले सफल प्रयास के बाद नीतीश−अजित को उम्मीद है कि उनका चौथा मोर्चा बनाने का सफर धीरे−धीरे बढ़ता और बड़ा होता जायेगा। इसी क्रम में पूर्वांचल, अवध व अन्य क्षेत्रों में नीतीश कुमार व अजित सिंह की संयुक्त रैलियां होंगी और इन रैलियों में स्थानीय छोटे दलों को भी साथ लाया जाएगा। बस फर्क इतना होगा कि जहां पश्चिमी यूपी में अजित सिंह का चेहरा चमक रहा होगा, वहीं पूर्वांचल में नीतीश कुमार अपने चेहरे को ज्यादा चमकाने की कोशिश में रहेंगे। बिहार से लगा होने के कारण पूर्वांचल में न केवल बिहारियों की अच्छी खासी तादाद है, बल्कि बोलचाल, खानपान और संस्कृति में भी काफी समानता है। बिहार और पूर्वांचल के सियासी समीकरण करीब एक जैसे ही हैं। 

बात 2014 के लोकसभा चुनाव की कि जाये तो यहां भाजपा का परचम खूब लहराया था। अजित सिंह तक अपनी सीट नहीं बचा पाये थे। पश्चिमी उप्र को चुनावी नजरिए से अपने लिये अनुकूल मान रही भाजपा के लिए सफल बड़ौत रैली खतरे की घंटी है, यह बात कई लोग दोहरा रहे हैं लेकिन भाजपा इसे गंभीरता से नहीं ले रही है। वह कहती है कि जाट वोटर हों या फिर मीणा, राजपूत या अन्य बिरादरियां वह देख चुकी हैं कि मुजफ्फरनगर दंगों के समय सपा राज में उनके साथ किस तरह का सौतेला व्यवहार हुआ था। ऐसे में सपा की बी टीम रालोद और जदयू को वह अपना वोट देकर अपने लिये मुसीबत मोल नहीं लेंगे। भाजपा वाले कुछ भी कहें, लेकिन जमीनी हकीकत यही है कि अगर पश्चिमी यूपी में रालोद मजबूत होगा तो भाजपा को पश्चिमी उप्र में गत लोकसभा चुनाव जैसा जीत  का सौभाग्य नहीं मिलेगा। जयंत चौधरी को मुख्यमंत्री का चेहरा बनाकर उतारने से जाटों का झुकाव भाजपा से कम हो सकता है। रालोद अपनी पुरानी हरित प्रदेश की मांग को एक बार फिर उठा कर  भाजपा−सपा को जवाब देने को मजबूर करेगा, जबकि उक्त दोनों ही दल हरित प्रदेश के पक्ष में नहीं हैं। जदयू−रालोद और बीएस−फोर के गठबंधन से जाट−कुर्मी व पासी गठजोड़ की संभावना को भी बल मिलेगा।

नीतीश−अजित का गठबंधन चुनाव बाद स्थिति पर भी नजर रखे हुए है। इसीलिये बड़ौत की स्वाभिमान रैली में दिग्गज नेताओं ने भाजपा, मोदी और सपा को तो जमकर कोसा, किंतु यह नेता कांग्रेस पर हमला करने से गुरेज करते रहे। स्वाभिमान रैली में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा कि वह फरवरी−मार्च से अजित सिंह के साथ मिलकर गठबंधन की रूपरेखा तैयार कर रहे थे, जो अब साकार हुई है। उन्होंने जयंत को होनहार नेता बताते हुए खुद को चौधरी चरण सिंह का शागिर्द बताया। साफ किया कि उत्तर प्रदेश में परिवर्तन का मतलब सपा और बसपा का सत्ता में आना−जाना माना जाता है, जबकि इस बार रालोद−जदयू गठबंधन ही सरकार तय करेगा। नीतीश ने केंद्र सरकार पर महंगाई, बेरोजगारी, कृषि नीति, प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना एवं मेक इन इंडिया को लेकर हमला बोला तो रैली में जुटी भीड़ से उत्साहित नीतीश ने घोषणा कर दी कि विधानसभा चुनाव के बाद रालोद−जदयू गठबंधन की सरकार बनती है तो उत्तर प्रदेश में भी शराबबंदी लागू की जाएगी।

लब्बोलुआब यह है कि नीतीश−अजित की एकता के साथ यूपी में गठबंधन के लिये हाथ−पैर मार रहे नीतीश ने पहला पड़ाव हासिल कर लिया है। इसके साथ ही चौथे मोर्चे की भी चर्चा शुरू हो गई है। यह गठजोड़ करीब सौ विधानसभा सीटों पर चुनावी मुकाबला चौतरफा बना सकता है, जहां जीत−हार का अंतर काफी छोटा होगा और बाजी कभी भी पलट जाने का भय सभी दलों के नेताओं को सताता रहेगा।

 

 


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