भगत ..मेरा भाँगा वाला

By: Dilip Kumar
3/24/2017 2:25:36 PM

"भगतसिंह पुस्तको को पढता नही निगलता था, फिर भी उसकी प्यास अनबुझी ही रहती थी। " भगत ने बकुनिन को पढ़ा, मार्क्स, एजील्स, लेटिन, रूसो आदि न जाने कितनो को पढ़ा। भगतसिंह का अध्यन वयवस्थित, वैज्ञानिक और व्यवहारिक था। भगतसिंह ने अपने अध्यन के प्रति रुझान के लिए लिखा था कि,"अध्ययन करो ऐसी पुकार मेरे मन के कोने-कोने में गूँजने लगी। प्रति इन्द्रियाँ द्वारा उठाई गई दलीलों का सामना किया जा सके इसके लिए अध्ययन करों। अपनी निष्ठा के समर्थक में मुक्तिवाद का भरपूर बारूद जमा करने के लिए अध्ययन करों।"  

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 Dr. Chaarvi Singh

Faculty of Humanities

 Avviare Educational Hub

 Saachi.chaarvi1@gmail.com

 8130510908

जिसे सफलता कहते हैं, ऐसे सफल मनुष्य दुनिया में भरे पड़े रहे हैं हमारे अपने देश में भी करोडों की तादाद में होंगे। परन्तु हमारे शब्द कोशों में सफलता के अलावा एक और शब्द भी हैं-चरितार्थता। सफल मनुष्यों की संख्या करोड़ों में हैं, परन्तु कितने ऐसे हैं जिन्होंने अपने मनुष्य होने को चरितार्थ किया हो। ऐसे लोग उँगलिया में गिने जाने लायक ही होगें- भगत सिंह ऐसे ही मनुष्य ही थे। वे सफल मनुष्य बन सकते थे, पर सफलता को लानत मानने हुए अपने विचारों, अपने कर्म और अपने आचरण से उन्होंने अपने मनुष्य होने को, अपने भारतवासी होने के चरितार्थ किया।

मात्र 23 वर्ष का उम्र में आदमी सफलता के सपने देखता है, उन्होंने शहादत का वर्ण किया, अपने गुलाम देश की मुक्ति का सपना देखा, फांसी के फंदे के फंदे को चूमा और उसे गले लगाया। संसार को जिन्होंने ठोकर मारकर आगे बढाया हैं, वे सभी अपने समय में लांछित हो चुके हे। दुनिया खाने-पीने, पहनने-ओढने तथा उपभोग करने वाली वस्तुओं का व्यापार करती हैं। पर कुछ दीवाने चिल्लाते फिरते रहते हैं- “सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में हैं”। राजनीतिक स्वंतत्रता की भावना ऐसे फैली ?  सर उठाने वालों ने उसे प्रचारित किया था या जी हुजूर करने वालो ने? स्वंय सर सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने अपनी जीवन स्मृति में लिखा हैं “भारत की राजनीतिक और शासन-व्यव्सथा की प्रगति का श्रेय यदि किसी को दिया जा सकता है तो वह कुछ सिरफिरे युवाओं को ही दिया जा सकता है”। 23-24 वर्ष की उम्र में सडकों पर आकर, संसार की सबसे बडी साम्राज्यवादी ताकत से मुठ्ठी भर साथियों के साथ लडाई लड रहे भगत सिंह जैसा ह्रदय सबके पास नहीं होता। अंग्रेजों द्वारा देश की दुर्दशा देखकर इन नौजवानों के मन में अकसर यह भावनाएं उमड़ती थी-

"तेरी जुल्म की हस्ती को ऐ जालिम मिटा देंगे, जबा से जो निकलेंगे हम वो करके दिखा देंगे।

भडक उठेगी जब सीने की दो आतिश, तो हम एक सर्द हवा भर कर तुझे जालिम जला देंगे।

हमारी फाका मस्ती कुछ ना कुछ रंग लाके छोडेगी, निशां तेरी मिटा देंगे तुझे जो बद्दुवा देगे।

कुछ इसमें राज था मुद्दत से जो खामोश बैठे थे, हम अब करने पर आए है, कुछ करके दिखाएगें।"

भरत सिंह और उनके साथियों ने समय की मजबूरी, जन अभियान की जरूरत तथा अंग्रेजी साम्राज्य की करतूतों को रोकने के लिए, चाहे वो पुलिस मुख्यालय में पुलिस अधीक्षक को सजा देने की योजना हो या केंद्रीय एसेंम्बली में बम धमाके की घटना हो, को अंजाम दिया। भारतीय क्रान्तिकारी एक और अंग्रेजी से लड रहे थे और दूसरी ओर अपनों को ही सताने वाले जन विरोधी नेताओं से। उन्होंने अपनी यह दोहरी और कठिन लडाई पूरी लड़ी।

अशफाकुल्ला खाँ के शब्दों में कहे तो –“ सुनाए गम को किसे कहानी, हमे तो अपने सता रहे है ”। पार्टीगत भावनाओं से ऊपर उठकर पुरे देश की सहानुभूति उन्हें मिली परंतु पुरे संघर्ष के दौरान महात्मा ने नरसिंहावताररूपी चुप्पी साधे रखी। गाँधी ने उन सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और मनोवैज्ञानिक परिस्थितयों की अनदेखी की जो क्रांतिकारी हालातों को जन्म देती है। इसे अंत विरोध ही कहेंगे कि गाँधी दुश्मनोँ को तो प्रेम के संदेश से जीतना चाहते थे जबकि अपने ही देश के उन लोगो की कटुतपर्ण भत्सर्ना करते थे जो उनसे सहमत नहीं थे। आखिर असेम्बली में फेंके गए बम का उद्देश्य किसी को मरना नही था।

वह बम फेक गया मात्र बहरे कानो को सुनाने के लिए। भगतसिंह ने जब मिंयावाली जेल में कैदियों की दशा सुधारने के लिए अनसन किया तो वे गांधिवादी तरीके से कहाँ जुदा थे? हैरानी होती है की गाँधी ने इन संदेशो के निहितार्थो को क्यों नही समझा ? 23 साल की उम्र मारने की नहीं थी। वह एक संभावना की मौत थी। एक महान संभावना की। किया महात्मा अपनी समस्त सत्याग्रही शक्तियों के साथ लार्ड इरबिन से भगत सिंह और उनके साथियों को जीवनदान देने के लिए बाध्य नही कर सकते थे ? आखिर भगतसिंह की हिंसा चोरी-चौरा की  हिंसा तो नही थी। इतिहास गाँधी के बावजूद उनकी समस्त उपलधिया और योगदानो के इतना तो कहेगा की वह एक महान संभावना के खत्म होने के साक्षी रहे । 

  मिट गया जब मिटने वाला, फिर सलाम आया तो क्या,

   दिल की बर्बादी के बाद, उनका पयाम आया तो क्या,

23 मार्च 1931 को फांसी के तख्ते पर एक जीवन खत्म हो गया था, पर उसने यह रेखांकित  कर दिया था की विचार और सपने मरते नही। भगतसिंह की लड़ाई और शहादत उन मूल्यों का प्रतिनिधित्तव करते है, जो किसी आततायी को उखाड़ फेकना चाहते थे। यह लड़ाई शोषितों के पक्ष में थी और अपनी मति के लिए थी। उन्होनें अपने तरीको से समाज को झरझरा था। शायद यही वजह थी की भले ही देश के अखबारों में उनकी शहादत की खबर रोक ली गई थी, पर लैटिन अमेरिकी देश के अखबारों में वह पहले पन्ने पर प्रकाशित थी। भगतसिंह की जेल नोट बुक देंखे सचमुच अचंभित करती है।

हम सब सोचे की 22 - 23 वर्ष की उम्र में हम लोग किन बातों में उलझे हुए है। किन -किन हरकतों में मशगूल है अगर तुलना करे उस एक नॉजवान से जो जेल में सोच रहा था भावी भारतीय समाझ कैसा होगा? कुल 23 वर्ष से कम उम्र में शहीद हो जाने वाले इस महान नवयुवक ने बौद्विकता की जिन उचाइयों को लाँघ लिया था, वह एक असाधारण करिश्मा था। पूरी दुनिया में 23 वर्ष की उम्र का कोई ऐसा बुद्धिजीवी पैदा हुआ है जिसने कम से कम पांच वर्ष अपने देश के इतिहास को अपने कांधो पर उठाए रखा भगतसिंह एक ऐसे क्रांतिवीर थे, जिनको सशस्त्र क्रांति के साथ अध्ययन का भी जबरदस्त जूनून था।

भगतसिंह के गुरुजनों के शब्दो में कहे तो, "भगतसिंह पुस्तको को पढता नही निगलता था, फिर भी उसकी प्यास अनबुझी ही रहती थी। " भगत ने बकुनिन को पढ़ा, मार्क्स, एजील्स, लेटिन, रूसो आदि न जाने कितनो को पढ़ा। भगतसिंह का अध्यन वयवस्थित, वैज्ञानिक और व्यवहारिक था। भगतसिंह ने अपने अध्यन के प्रति रुझान के लिए लिखा था कि,"अध्ययन करो ऐसी पुकार मेरे मन के कोने-कोने में गूँजने लगी। प्रति इन्द्रियाँ द्वारा उठाई गई दलीलों का सामना किया जा सके इसके लिए अध्ययन करों। अपनी निष्ठा के समर्थक में मुक्तिवाद का भरपूर बारूद जमा करने के लिए अध्ययन करों।"  

 भगतसिंह का सम्पूर्ण लेखन आज तक सामान्य पाठकों तक नहीं पंहुचा है। भगतसिंह ने जेल में मौत की आहट से बेखबर होकर चार पुस्तकें लिखीं थी - (i) भारत में क्रन्तिकारी आंदोलन का इतिहास (ii) समाजवाद का आदर्श (iii) मृत्यु के द्वार पर । इनमे से एक भी पुस्तक वर्तमान समय में उपलब्ध नहीं है, साधारण शब्दो में कहे तो उनकी पुस्तको को जनता तक पहुचने नही दिया गया। यह भी सोचने वाली बात है कि जो शक्श अपने लिए बलिदान के कारण जन-जन में इतना लोकप्रिय हुआ, उस पर साहित्यकारो और रचनाकारों ने इतना काम लिखा है। इसे आप आंग्रेजो का दर कहिये या काग्रेस का।

भगतसिंह ने राष्ट्रीय आंदोलन के पूंजीवादी नेतर्त्व के बारे में काफी पहले ही आगाह किया था की उसका लक्ष्य दस फीसदी ऊपर के लोगो की आजादी है जबकि क्रान्तिकारियो का लक्ष्य 90 फीसदी आम जनता की आजादी है । इसकी पुष्ठि हुई भगतसिंह द्वारा लिखी जेल नोट बुक में लिखे सबसे पहले वाक्य से, जहा भगत ने लिखा है की, "मेरा हौसला एक हताशा से भरा हौसला है और मेरी ताकत दमन सह रही जनता की ताकत हैं ।" भगतसिंह ने बहुत पहले देश की अपमान जनक गरीबी और बहुसंख्य जनता के अपमानवीए शोषण का कारण ढूंढ  लिया था। 18 सितम्बर 1927 को कांग्रेस एक महत्वपूर्ण नेता के नाम खुले पत्र में भगतसिंह लिखा था कि हम आप पर निम्नलिखित आरोप लगाते है - (i) राजनैतिक दुलमुलपन (ii) राष्ट्रीय शिक्षा के साथ विश्वासघात (iii) स्वराज्य पार्टी के साथ विश्वासघात (iv) हिन्दू -मुश्लिम  तनाव को बढ़ाना। भगत के ये आरोप हम अपने नेताओं पर आज भी लगा सकते हैं । राष्ट्रीय शिक्षा के साथ जन विश्वासघात की चर्चा भगतसिंह ने  अपने पत्र में की थी उसका सबसे गन्दा रूप हम आज देख रहे है।

भगत ने आज से 76 वर्ष पहले किसानों मजदूरों की बात कहीँ, पूंजीवादी को लेकर बातें कहीँ, देशी नेताओं के बारे में किसानों की दयनीय स्थिति से हम भलीभांति परिचित है। भगत सिंमह अपनी आलोचना से डरे नही। 12 फरवरी 1931 को नौजवानो के नाम अपने एक संदेश में उन्होंने कहा था ,”मैने एक आतंकवादी की तरह काम किया है लेकिन मै एक आतंकवादी नही हूँ। मैं एक क्रान्तिकारी हूँ, जिसके पास सुनिश्चित विचार और दीर्घ क्रायकर्म हैं। मुझें यकीन है कि हम आतंकवादी तौर तरीकों से कुछ भी हासिल नहीं कर पायगें। ” हिंसा के प्रति भी भगत सिंह के विचार ध्यान देने योग्य हैं- हम हिंसा में विश्वास रखते है अपने आप में अंतिम लक्ष्य के रूप में नही  बल्कि एक नेक परिणाम तक पहुंचने के लिए क्या मायने है ? 

भगत से एक बार एक प्रश्न पूछा गया कि हत्या का एक क्रान्तिकारी के सिए काया मायने हैं? भगत ने इसका उत्तर देते हुए कहा इस तरह दिया –“ हम मानव -जीनव को अत्यन्त पवित्र मानतें हैं,....जल्द ही हम मानवता की सेवा में अपना जीवन अर्पित कर देंगे”। बजाये किसी को नुकसान पहुचनें के। भगत के उपरोक्त विचारों को देखते हुए आधार पर भगत सिंह को आतंकवादी कहकर सम्मानित किया जाता हैं? । भगत सिंह सम्भावनाओं के जन -नायक बनकर इतिहास में अपनी उज्जवल उस्थिति दर्ज कराते हैं कयों कि ईश्वर ने उन्हें इस देश के लिए जीने की उम्र नही दी थी।

भगत सिंह ने अपनी की बहार में अपनी खूबसूरत जिंदगी क्रान्ति के  लिए कुर्बानी कर दी, यह एक ऐसा सच है जो हर धर्म, जाति और हर विचारधारा का व्यक्ति स्वीकार करता है। आज जब सामाजिक मूल्यों का निरंतर पतन हो रहा हैं, भगत सिंह के विचार युवा पीढी को राह दिखाने का प्रतिक बन करता है पर सवाल भगत सिंह को जानने का हैं आज़ादी के सत्तर साल पुरे हो चुके हैं और भगत सिंह के जन्म 109 बरस, साम्प्रादयिक दंगे अभी जारी हैं, उनका इलाज नहीं खोजा जा सका, अहूत समस्या भी अभी जस की तस हैं, और अनंत में मैं अपने विचारों को विराम देते हुए कहना चाहूंगी की कोई जश्न मनाए भी तो कैसे इस समिठाई हुई नकली आजादी का। हमारे जीने का यह भी एक तरीका है कि हर साँस के साथ अपनी खती कुबुल करते हुए हम आपको ( भगत सिंह) याद करते हैं।

 

 

 

 

 

 

 

 

 


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