संवैधानिक विरासत से जुड़ने और उससे प्रेरणा लेने की आवश्यकता : विजेंद्र

By: Dilip Kumar
7/11/2025 1:56:25 PM
नई दिल्ली

कुलवंत कौर के साथ बंसी लाल की रिपोर्ट। दिल्ली विधानसभा ने “1911–1946 के पूर्व-स्वतंत्रता भारत की संसदीय प्रणालियाँ और स्वतंत्रता संग्राम में भारतीय प्रतिनिधियों की भूमिका” विषय पर एक ऐतिहासिक संगोष्ठी का आयोजन किया।इस संगोष्ठी में देश के प्रतिष्ठित विद्वानों, शिक्षाविदों एवं सार्वजनिक बुद्धिजीवियों ने भाग लिया और भारत के स्वतंत्रता आंदोलन को सुदृढ़ बनाने वाली विधायी‌ परंपराओं तथा वैचारिक आधारों पर संवाद किया। “औपनिवेशिक प्रतिबंधों के बीच भी भारतीय विधायकों ने जिस राजनीतिक परिपक्वता और नैतिक स्पष्टता का परिचय दिया, वह स्वतंत्र भारत की संसदीय नींव बन गई।” मुख्य वक्ता के रूप में पूर्व सांसद, भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद (आईसीसीआर) के पूर्व अध्यक्ष तथा रामभाऊ म्हालगी प्रबोधिनी के उपाध्यक्ष विनय सहस्रबुद्धे ने अपने संबोधन में यह बात कही। उन्होंने आगे कहा कि भारत की लोकतांत्रिक चेतना किसी उपनिवेशी व्यवस्था की देन नहीं, बल्कि इसकी जड़ें भारत की हज़ारों वर्ष पुरानी संवाद, असहमति और विमर्श की परंपरा में हैं। उन्होंने विठ्ठलभाई पटेल और भगत सिंह जैसे नेताओं के योगदान का स्मरण करते हुए संस्थागत जवाबदेही और लोकतांत्रिक आधुनिकीकरण की आवश्यकता पर बल दिया।

राम बहादुर राय, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के अध्यक्ष, ने दिल्ली विधानसभा के इस प्रयास की सराहना करते हुए कहा कि प्रारंभिक संसदीय इतिहास को पुनः स्मरण करना हमारे लोकतांत्रिक मानस को समृद्ध करता है। लाल-बाल-पाल की वैचारिक त्रयी के साथ श्री अरविंदो के योगदान को रेखांकित करते हुए उन्होंने कहा, “उनकी चेतना की अग्नि लंदन तक पहुंची—यह हमारी स्वतंत्रता की वैश्विक प्रतिध्वनि थी।” श्री राय ने पंडित मदन मोहन मालवीय को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उनकी 6 फरवरी 1919 को रॉलेट एक्ट के विरोध में दी गई 5 घंटे की ऐतिहासिक भाषण का उल्लेख किया, जिसे स्वयं गांधीजी ने सराहा था। विधान सभा अध्यक्ष विजेंद्र गुप्ता ने अपने वक्तव्य में भारत की संवैधानिक विरासत से पुनः जुड़ने की आवश्यकता पर बल दिया। उन्होंने पंडित मालवीय और विठ्ठलभाई पटेल जैसे नेताओं का उल्लेख करते हुए कहा कि एक सदी पहले भी हमारे विधायी प्रतिनिधि लोकतंत्र, नागरिक स्वतंत्रता और सदन की मर्यादा के प्रतीक थे। श्री गुप्ता ने कहा कि यह संगोष्ठी एक दीर्घकालिक शैक्षणिक पहल की शुरुआत है, जिसका उद्देश्य भारत की पूर्व-स्वतंत्रता विधायी परंपराओं का दस्तावेजीकरण करना और उसे जनमानस से जोड़ना है।

दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रोफेसर डॉ. नीरजा सिंह ने “विठ्ठलभाई पटेल: औपनिवेशिक काल (विदेशी शासन काल)विधान परिषद में राष्ट्रवादी नेतृत्व” विषय पर अपना शोधपत्र प्रस्तुत किया। उन्होंने बताया कि कैसे 1925 में केंद्रीय विधान सभा के पहले निर्वाचित भारतीय अध्यक्ष के रूप में पटेल ने संसदीय गरिमा और स्वायत्तता की नींव रखी। 1929 में स्वतंत्र विधानसभा सचिवालय की स्थापना हो या दमनकारी कानूनों का संवैधानिक प्रतिरोध—विठ्ठलभाई पटेल ने विधायी मंच को राष्ट्रीय आंदोलन के एक सशक्त माध्यम में बदला। प्रो. हिमांशु राय ने “पब्लिक सेफ्टी बिल और विधायी स्वायत्तता की रक्षा” विषय पर अपने संबोधन में पटेल की विधायी सूझबूझ का उल्लेख किया। उन्होंने बताया कि कैसे पटेल ने पब्लिक सेफ्टी बिल पर बहस की अनुमति नहीं दी क्योंकि वह मामला मेरठ षड्यंत्र केस के चलते विचाराधीन था। उन्होंने यह भी बताया कि पटेल ने किस तरह सदन की गरिमा की रक्षा के लिए सेना प्रमुख से माफ़ी मंगवाई और जिनेवा में लीग ऑफ नेशंस में भाग लेकर भारत की वैश्विक उपस्थिति को मजबूती दी।

दिल्ली विश्वविद्यालय के डॉ. भुवन झा, ने “केंद्रीय विधान सभा में पंडित मदन मोहन मालवीय” विषय पर अपने शोध में उन्हें एक संवैधानिक राष्ट्रवादी बताया। रॉलेट एक्ट का विरोध हो या हिंदू-मुस्लिम एकता और शिक्षा का समर्थन—मालवीय जी का विधायी कार्यक्षेत्र आदर्श नेतृत्व का प्रतिरूप था। प्रो. संतोष कुमार राय ने “परिषद से परिसर तक: दिल्ली विश्वविद्यालय के निर्माण में केंद्रीय विधान सभा की भूमिका” विषय पर अपने वक्तव्य में बताया कि कैसे विधायी विमर्शों ने दिल्ली को एक प्रमुख शैक्षिक केंद्र के रूप में विकसित किया। उन्होंने इसे आत्म-निर्णय और स्वदेशी बौद्धिक शक्ति निर्माण का हिस्सा बताया। प्रो. मनीषा चौधरी ने “अस्थायी औपनिवेशिक राजधानी का निर्माण” विषय पर अपना शोधपत्र प्रस्तुत किया। उन्होंने बताया कि किस प्रकार शहरी नियोजन, वास्तुशिल्प प्रतीक और प्रशासनिक पुनर्गठन में औपनिवेशिक मंशा और राष्ट्रवादी आकांक्षाएं एक साथ अभिव्यक्त हुईं। दिल्ली की भौगोलिक राजनीति, उनके अनुसार, एक व्यापक संघर्ष का प्रतीक थी।

इस अवसर पर माननीय उपाध्यक्ष मोहन सिंह बिष्ट ने भी संगोष्ठी की सराहना करते हुए कहा कि स्वतंत्रता संग्राम के विधायी पक्ष को समझना आवश्यक है ताकि हम उन संवैधानिक मूल्यों को आत्मसात कर सकें जिन पर भारत की लोकतांत्रिक नींव टिकी है। दिल्ली विधान सभा में मुख्य सचेतक अभय वर्मा के अलावा अन्य विधायकगण भी उपस्थित थे। संगोष्ठी में विधायकों, विश्वविद्यालय छात्रों, कानून के प्रशिक्षुओं और शिक्षाविदों की सक्रिय भागीदारी रही, जिससे संवाद और चिंतन का एक जीवंत वातावरण बना।


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