गोपी चंद नारंग: उर्दू के एक युग की समाप्ति

By: Dilip Kumar
6/16/2022 5:58:10 PM

जहां प्रोo गोपी चंद नारंग उर्दू भाषा का ताज थे, वहीं उर्दू के लिए भी यह बड़े गर्व की बात है कि उसको नारंग जैसा अनमोल हीरा मिला! ग़ालिब का यह शेर याद आ रहा है, नारंग की परलोक बिदाई पर: 

“हजारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पे रोती है,

बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदागर पैदा!” 

जीवन भर भाषा के राजनीतिकरण, धर्मांधता आदि के विरुद्ध अपनी वाणी को मुखर करने वाले वाले, उर्दू साहित्य के प्रख्यात आलोचक और विचारक प्रोफ़ेसर गोपीचंद नारंग ने 91 वर्ष की आयु में संयुक्त राज्य अमेरिका के उत्तरी कैरोलिना के शारलेट में अपने भगवान से जा मिले। वह समकालीन उर्दू के श्रेष्ठतम लेखकों में एक थे, जो वैश्विक साहित्य जगत में धर्मनिरपेक्ष भारत के सांस्कृतिक राजदूत सरीखे थे। उर्दू और भारतीय सभ्यता का विदेशों में झण्डा फहराने वालों में अव्वल थे और लोकतांत्रिक मूल्यों में आस्था रखने वाले गोपी नारंग अपनी प्रगतिशील और बहुलतावादी विचारों के हिमायती थे. वह सदैव संकीर्ण विचारधारा, सामाजिक अन्याय और असमानता के विरोधी थे। 

यूं तो नारंग साहब के ऊपर लेखक ने हिन्दी, उर्दू, मुझे याद आता है कि एक बार जब मैं उनसे उस समय मिलने गया कि जब उनके विरुद्ध किसी ने एक पुस्तक ही लिख डाली विदेश में, उनपर नाना प्रकार के आरोप लगाते हुए। लेखक ने कहा की उनके ऊपर जो आरोप इस पुस्तक में लगाए गए हैं, उनको इसके खंडन में एक जवाबी किताब अन्यथा अदालती कार्यवाही करनी चाहिए। इस पर उनका बड़ा ही सटीक और नसीहतआमेज जवाब था, जो कि आज भी मुझे याद है, “फिरोज मियां, मेरे पास तो पॉज़िटिव काम करने का वक़्त नहीं है तो नेगेटिव काम के लिए वक़्त कहाँ से लाऊं!

 वैसे भी जमाने ने किसी को नहीं बख़्शा है मुखालिफत से, चाहे वे मौलाना अबुल कलाम आज़ाद हों, सर सैयद अहमद ख़ान हों, हकीम अब्दुल हमीद हों। मैं तो बहुत छोटा सा आदमी हूँ, लोगों ने तो नबियों तक को नहीं छोड़ा!” उनहोंने बताया कि यदि हाली अपने ऊपर लगाए गए आरोप कि वे पाश्चात्य सभ्यता को वज़न देते हैं और यह कि उन्हें लिखना छोड़ देना चाहिए और वे इन उलझललों में फंस कर अपना वक़्त बर्बाद करते तो शायद इतने बड़े उर्दूदां न बनते। नारंग ने बताया, “आपका कर्तव्य है की आप अपना कार्य मजबूत से करते जाईए और आलोचक व मुखालिफ अपना काम करते चले जाएंगे। जीत उसी की होगी जिसकी नियति साफ है क्योंकि ऐसे व्यक्ति की अल्लाह भी मदद करता है!” यह बहुत बड़ी बात है। इसके अतिरिक्त, जब कोई भी व्यक्ति समाज में आगे बढ़ता है तो उसकी सफलता जितनी बढ़ती जाती है, उतने ही उसके चाहने वाले और उससे ईर्ष्या करने वालों की संख्या भी बढ़ती चली जाती है। इसी प्रकार से एक और रोचक बात इन्होंने जो बताई वह थी कि जब इनहोंने अपने घर सर्वोदय एंक्लेव के बाहर अपनी पहली “फ़ियेट” कार ख़रीदी और पार्क के तो उस क्षेत्र में वह किसी के द्वारा भी ली गई वह प्रथम मोटर गाड़ी थी और लोग उसे देखने आते थे।

 गोपी चंद नारंग 58 पुस्तकों के रचयिता हैं। वैसे उर्दू के वह प्रथम लेखक हैं जिन्हें पद्म श्री व पद्म भूषण और साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। यूं तो उनके द्वारा लिखी गई प्रत्येक पुस्तक ऐतिहासिक है, जैसे, उनकी कुछ विशेष पुस्तकें हैं, “उर्दू ग़ज़ल और हिन्दुस्तानी जह्न-ओ-तहज़ीब”, “उर्दू अफसाना रवायत”, “अमीर खुसरो का हिंदवी कलाम”, “उर्दू की तालीम के लिसानियाती पहलू”, “साख्तियात, पसे साख्तियात, मशरिकी शेरियात” इत्यादि शामिल हैं ।

गोपी चंद नारंग वास्तव में उर्दू के कायद-ए-आजम हैं और मानते थे कि भाषाओं का कोई धर्म नहीं होता और भाषा उसी की होती है जो उसे बोलता है। वे कहा करते कि कुछ लोगों की ग़लतफहमी है की उर्दू मुस्लिमों की भाषा है तो ऐसा सोचना ठीक नहीं है क्योंकि उर्दू तो साझा विरासत की ज़बान है और गंगा-जामुनी तहज़ीब इसके कण-कण में बसी हुई है। वे मानते थे कि यदि मुस्लिमों की कोई भाषा है तो वह उर्दू नहीं बल्कि अरबी है। वे हिंदी-उर्दू को बहनें कहा करते थे और मानते थे की ये दोनों, एक दूसरे की प्रतियोगी नहीं बल्कि पूरक भाषाएं हैं। वह उर्दू को आपसी भाईचारे, समरसता सामाजिक सद्भाव और सौहार्द की भाषा मानते थे और वह रूढ़िवादिता और सांप्रदायिकता को मानवीय उत्थान का सबसे बड़ा बाधक मानते थे। वह एक विद्वान साहित्य अनुरागी थे, जिन्होंने उर्दू आलोचना के अलावा अंग्रेजी व हिन्दी साहित्य में भी उल्लेखनीय कार्य किया हैं। बतौर आलोचक उन्होंने ग़ालिब, मीर, मंटो, इकबाल और प्रेमचंद के कार्य की गंभीर तीक्ष्णता से पुन: मूल्यांकन किया. उनकी इस साहित्य निष्ठा से उर्दू साहित्य को समृद्ध किया. वह अपने लेखन में अपने वैचारिक दर्शन के साथ-साथ भाषा के सौंदर्यशास्त्र और शिल्प को खोने नहीं देते थे।

उर्दू में ग़ैर मुस्लिमों की भी बड़ी संख्या है व वर्चस्व भी है और जिनको नारंग भी मानते थे, उनमें कुछ नाम इस प्रकार से हैं, पंडित रत्न नाथ सरशार, पंडित दया शंकर नसीम, प्रेम चंद, दत्तात्रेय कैफी, चकबस्त लखनवी, फिराक गोरखपुरी, लखनवी, कृष्ण चंद्र, तिलोक चंद महरूम, जगन्नाथ आज़ाद, रजिन्दर सिंह बेदी, महिंदर सिंह बेदी, एम एम रजिन्दर, कन्हैया लाल कपूर, बशेशर प्रदीप, प्रकाश पंडित, नरेश कुमार शाद, राम पाल, बलवंत सिंह, मालिक राम, कृष्ण बिहारी तूर, मीम मीम राजिन्दर, डाo केवल धीर, जफर पयामी आदि। यदि यह कहा जाए की इन सभी की अंतिम कड़ी थे नारंग, तो ग़लत न होगा।

 नारंग जब बोलते थे तो ऐसा लगता था कि फूल झाड रहे हों। उनको 6 भाषाओं पर पूरी महारत थी, जिनमें उर्दू, फार्सी, अरबी, सरयिकी, हिन्दी और अङ्ग्रेज़ी के अतिरिक्त कुछ हद तक फ्रेंच और तुर्की भी शामिल थीं। उनके पिता भी साहित्यिक विचारधारा के व्यक्ति थे और उनसे बहुत कुछ गोपी चंद ने सीखा। उर्दू में ही नहीं, नारंग ने हिन्दी और अंग्रेजी में भी किताबें लिखी हैं। नारंग को पाकिस्तान के भी तीसरे सर्वोच्च सम्मान सितारा-ए-इम्तियाज से सम्मानित किया जा चका है। एक रोचक रेकॉर्ड भी नारंग साहब के खाते में जो गया है वह है की आज विश्व के अधिकतम विश्वविद्यालयों के उर्दू विभागों में जो पढ़ाने वाले प्रोफेसर हैं, वे नारंग के ही शिष्य रह चुके हैं। 

नारंग ने दिल्ली विश्वविद्यालय के सेंट स्टीफन कॉलेज से ग्रैजुएशन किया था, जहां वे कुछ समय तक शिक्षक भी रहे। गोपी चंद नारंग ने 1954 में दिल्ली विश्वविद्यालय से उर्दू में पोस्ट ग्रेजुएशन करने के बाद शिक्षा मंत्रालय द्वारा मिली स्कॉलरशिप लेकर उन्होंने 1958 में अपनी पीएचडी पूर्ण की और वे सेंट स्टीफेंस कॉलेज में ही उर्दू साहित्य पढ़ाने लगे। इसके बाद वे दिल्ली विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग से जुड़ गए और साल 1961 में वह रीडर हो गए।

 पाकिस्तान के मशहूर उर्दू दैनिक, “नवा-ए-वक़्त के पूर्व संपादक और लाहौर के दैनिक “मशरिक़” के वरिष्ठ स्तंभकार, सईद आसी बताते हैं कि जिन दो भारतीय हस्तियों को पाकिस्तान में आज भी बड़े मान सम्मान से याद किया जाता है, वे हैं, प्रथम, अटल बिहारी वाजपेयी और उसके बाद गोपी चंद नारंग। इन दोनों की आईटीआई ज़बरदस्त बात थी की यदि पाकिस्तान दूतावास में पाकिस्तान के वीज़ा के लिए इन में से किसी एक का भी नाम ले देता तो उसे वीज़ा दे दिया जाता। 

गोपी चंद नारंग साल 1963 में बतौर विजिटिंग प्रोफेसर विस्कॉनसिन यूनिवर्सिटी में पढ़ा चुके हैं। वहीं मिनेसोटा यूनिवर्सिटी और ओस्लो यूनिवर्सिटी में भी वह पढ़ा चुके हैं। साल 1974 में नारंग ने जामिया मिल्लिया इस्लामिया में प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष का पद संभाला और उन्होंने यहां करीब 12 सालों तक छात्रों को पढ़ाने का काम किया। इसके बाद 1986 में वे दोबारा दिल्ली विश्वविद्यालय के साथ जुड़े और 1995 तक वे यहां कार्यरत रहे। इसके बाद साल 2005 में दिल्ली विश्वविद्यालय ने उन्हें प्रोफेसर एमरिटस के रूप बनाया। जो भी है, अब दूसरा नारंग नहीं आएगा। (लेखक मानू, हैदराबाद के पूर्व कुलाधिपति हैं)

फ़िरोज़ बख्त अहमद

ए-202 अदीबा मार्किट एंड अपार्टमेंट्स,

निकट रहमानी मस्जिद, मेनरोड, जाकिर नगर,

नई दिल्ली

 


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