आज जब भारत में समान प्रतिनिधित्व का प्रश्न गहन विमर्श का विषय बना हुआ है, ऐसे समय में कलिंदी कॉलेज के इतिहास विभाग की धरोहर हिस्ट्री सोसाइटी ने “Demography, Representation and Delimitation - The North-South Divide in India” पुस्तक पर एक सार्थक चर्चा का आयोजन किया। यह 560 पृष्ठों की पुस्तक भारतीय जनांकिकीय प्रवृत्तियों पर आधारित है, जो पिछले 150 वर्षों के आँकड़ों और विश्लेषण से समृद्ध है। कार्यक्रम की कीअध्यक्षा इतिहास विभाग की प्रोफेसर रिनी पुंडीर के स्वागत भाषण से हुई। उन्होंने परिचयात्मक टिप्पणी के साथ चर्चा की रूपरेखा प्रस्तुत की तथा भारत की जनसंख्या, क्षेत्रीय समानता और न्यायपूर्ण प्रतिनिधित्व से जुड़े कई महत्वपूर्ण प्रश्न उठाए। उन्होंने ‘उत्तर का पिछड़ापन और दक्षिण का अनुशासन’ जैसी संकीर्ण धारणाओं को अस्वीकार करते हुए संतुलित दृष्टिकोण अपनाने की बात कही। इसके पश्चात कॉलेज की प्राचार्या प्रोफेसर मीन चांरदा ने अपने प्रेरक शब्दों में विषय की प्रासंगिकता पर प्रकाश डाला, सभी वक्ताओं का स्वागत किया और लेखक को बधाई दी।
मुख्य वक्ता डॉ. रवि के. मिश्रा ने अपने उत्कृष्ट शोध-कार्य के आधार पर जनांकिकी, परिसीमन और प्रतिनिधित्व से जुड़े अनेक पहलुओं पर विस्तार से चर्चा की। उन्होंने स्वतंत्रता के बाद के भारत की पृष्ठभूमि से आरंभ करते हुए छात्रों को 1872 की जनगणना से प्राप्त आंकड़ों के माध्यम से भारत की जनांकिकीय तस्वीर प्रस्तुत की। इंग्लैंड और फ्रांस के उदाहरण देकर उन्होंने भारतीय जनसंख्या के वैश्विक संदर्भों को स्पष्ट किया। उनका मुख्य तर्क यह रहा कि दक्षिण भारत (केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश) में जनांकिकीय संक्रमण उत्तर भारत की तुलना में बहुत पहले आरंभ हो गया था। इसी संदर्भ में उन्होंने उत्तर राज्यों में जनसंख्या वृद्धि और घटाव के अंतराल पर प्रकाश डाला तथा यह तर्क दिया कि सभी क्षेत्रों का योगदान एक ही समय-सीमा में आंकना न्यायसंगत नहीं होगा। अंत में उन्होंने परिसीमन और उत्तर भारतीय राज्यों के अल्प-प्रतिनिधित्व जैसे संवेदनशील विषयों पर भी चर्चा की।
डॉ. देबल के. सिंहरॉय ने पुस्तक के बहुआयामी दृष्टिकोण की सराहना करते हुए कहा कि यह कृति भारत में तकनीकी, सामाजिक और सांस्कृतिक संक्रमण की प्रक्रिया को रेखांकित करती है। उन्होंने यह भी बताया कि यह पुस्तक अतीत और वर्तमान के बीच की खाई को पाटने का कार्य करती है। साथ ही उन्होंने परिवार नियोजन, माल्थस के सिद्धांत तथा जनसंख्या और निर्धनता के परस्पर संबंधों पर संक्षिप्त परंतु गहन विचार रखे। डॉ. दीप्ति त्रिपाठी ने ‘जनसंख्या इतिहास’ को एक उभरते हुए अध्ययन क्षेत्र के रूप में रेखांकित किया और कहा कि जनांकिकीय संक्रमण को कभी भी अलगाव में नहीं समझा जा सकता। उन्होंने “जनसंख्या विस्फोट” की धारणा को दृश्य भ्रम (optical illusion) बताते हुए इस विषय पर संतुलित दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता पर बल दिया।
कार्यक्रम के अंतिम चरण में विद्यार्थियों ने उत्साहपूर्वक अनेक प्रश्न पूछे — जैसे लेखक को इस विषय पर लिखने की प्रेरणा क्या थी, उत्तर भारत में संक्रमण की प्रक्रिया देर से क्यों हुई, और परिसीमन की जटिलताओं के समाधान क्या हो सकते हैं। अंत में धरोहर हिस्ट्री सोसाइटी के संयोजक डॉ. राम सरीक गुप्ता, टीचर-इन-चार्ज डॉ. ओम प्रकाश, विभाग के अन्य शिक्षकगण तथा धरोहर सोसाइटी के पदाधिकारियों ने इस ज्ञानवर्धक चर्चा के लिए सभी वक्ताओं और विद्यार्थियों का धन्यवाद ज्ञापित किया। यह कार्यक्रम अकादमिक समृद्धि और संवाद के उत्कृष्ट उदाहरण के रूप में याद किया जाएगा।
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