MOVIE REVIEW: देखने नहीं महसूस करने वाली फिल्म है अक्टूबर, आंखे हो जाएंगी नम

By: Dilip Kumar
4/29/2018 12:09:39 AM
नई दिल्ली

कुछ फिल्में ऐसी होती हैं, जो मनोरंजन नहीं करतीं, मन को छू जाती हैं, मन में बैठ जाती हैं। शूजित सरकार निर्देशित ‘अक्टूबर’ भी ऐसी ही फिल्म है। प्रख्यात साहित्यकार निर्मल वर्मा की प्रसिद्ध पंक्ति है- ‘दुख आदमी को मांजता है’। और जाहिर है, मंजने के बाद कोई भी चीज साफ हो जाती है, निर्मल हो जाती है। कई त्रासदियां हमें एक ज्यादा संवेदनशील मनुष्य बनाती हैं। फिल्म के नायक दानिश को भी त्रासदी ऐसे ही मांजती है और एक दर्शक के रूप में हम भी उस प्रक्रिया से अछूते नहीं रहते। इस दौरान एक उम्मीद के टूट जाने के डर और फिर से जिंदा हो जाने की खुशी के बीच बार-बार आंखों में नमी महसूस करते हैं और कभी-कभी होठों पर निश्छल मुस्कराहट के कतरे भी।

दानिश वालिया उर्फ डैन (वरुण धवन) दिल्ली के एक फाइव स्टार होटल में होटल मैनेजमेंट का ट्रेनी है। उसके साथ शिवली अय्यर (बनिता संधू), मंजीत (साहिल वेडोलिया) और कई दूसरे लड़के-लड़कियां भी ट्रेनिंग ले रहे हैं। डैन को अक्सर अपनी कारस्तानियों की वजह से अपने मैनेजर अस्थाना का कोपभाजन बनना पड़ता है। एक दिन रात में एक पार्टी के दौरान शिवली होटल के तीसरे माले से गिर जाती है। उसे बहुत गंभीर चोटें आती हैं और वह कोमा में चली जाती है। डैन उसे देखने हॉस्पिटल जाता है और उसकी हालत देख कर सिहर जाता है। बातचीत के दौरान एक दिन डैन की एक ट्रेनी दोस्त उसे बताती है कि शिवली ने उस रात पूछा था- वेयर इज डॉन (डैन कहां है)। डैन के दिमाग में यह बात घर कर जाती है कि शिवली ने आखिर ऐसा क्यों पूछा था। वह अपना सारा कामधाम छोड़ कर अपना ज्यादातर वक्त हॉस्पिटल में गुजारने लगता है। परिस्थितियां कुछ ऐसी बनती हैं कि वह दिल्ली छोड़ कर चला जाता है, लेकिन कुछ दिनों बाद ही वापस भी लौट आता है। कुछ महीनों बाद शिवली भी हॉस्पिटल से घर आ जाती है। फिर एक दिन...

दो घंटे की इस फिल्म के पहले 15-20 मिनट में तो समझ में नहीं आता कि फिल्म बताना क्या चाहती है! लेकिन धीरे-धीरे तस्वीर उभरने लगती है और एक खूबसूरत पेंटिंग बन जाती है। ठीक वैसे ही, जैसे कोई आर्टिस्ट स्केच बनाता है तो शुरू में बस कुछ रेखाएं नजर आती हैं, लेकिन जब वह अपना काम खत्म करता है तो एक खूबसूरत आकृति हमारे सामने होती है। यह फिल्म एक ऐसी प्रेम कहानी कहती है, जो पारम्परिक प्रेम कहानियों से अलहदा है। इस प्रेम कहानी में प्रेम स्पष्ट रूप से दिखता तो नहीं, लेकिन हर दृश्य में महसूस होता है। उस प्रेम में एक अजीब-सा अधूरापन दिखता है, लेकिन वास्तव में वह मुकम्मल है। यह फिल्म बहुत घटनापूर्ण नहीं हैं, लेकिन शुरू से अंत तक जिस तरह घटती है, वह हमारे अंदर एक बैचेनी पैदा करती है। एक ऐसी बेचैनी, जो सुकून से भरी है। यह फिल्म हर बात में ‘प्रैक्टिकल’ होने की भी जोरदार मुखालफत करती है। सफलता को ध्यान में रख कर ही कुछ करना, जीवन का उद्देश्य नहीं होता। ‘अक्टूबर’ एक धीमी फिल्म है, एक-एक चीज को बहुत इत्मीनान और आहिस्ता-आहिस्ता दिखाया गया है। इसके बावजूद यह फिल्म कभी बोर नहीं करती। एक-एक चीज को डिटेल के साथ बताया गया है। और खूबसूरत बात यह है कि इसके लिए संवादों का ज्यादा सहारा नहीं लिया गया है।

यह कहने में रत्ती भर भी संकोच नहीं है कि पिछले करीब डेढ़ दशक में शूजित सरकार ने जो निरंतरता दिखाई है, वह किसी और निर्देशक के काम में देखने को नहीं मिलती। ‘यहां’, ‘विक्की डोनर’ से लेकर ‘अक्टूबर’ तक उन्होंने मानवीय संवेदनाओं के जो विविध रंग पेश किए हैं, वह अतुलनीय है। एक निर्देशक के रूप में वह फिल्म दर फिल्म नए प्रतिमान गढ़ रहे हैं। शूजित सरकार के साथ उनकी पटकथा लेखक जूही चतुर्वेदी भी उतनी ही प्रशंसा की पात्र हैं। वह बेहतरीन पटकथा और संवादों से शूजित का काम आसान कर देती हैं। एक बेहद संजीदा फिल्म में भी वह हास्य के कुछ पल निकाल लेती हैं, जो जबर्दस्ती गढ़े हुए और बनावटी नहीं लगते, पूरी तरह सहज लगते हैं।

फिल्म में जिस तरह किरदारों को गढ़ा गया है, वह चकित करने वाला है। डैन जैसे किरदार बहुत कम देखने को मिलते हैं। किरदारों के चित्रण के मामले में कई शूजित कई बार हृषि दा (हृषिकेश मुखर्जी) की याद दिलाते हैं। अब मैनेजर अस्थाना के किरदार को ही ले लीजिए। पहले सीन में ही वह एक ऐसे मैनेजर के रूप में नजर आता है, जिसके लिए सिर्फ काम ही मायने रखता है, मानवीय संवेदनाएं नहीं। लेकिन जब फिल्म आगे बढ़ती हैं तो उसका मानवीय पहलू पूरी चमक के साथ नजर आता है, जो पेशेवर दबावों के बीच कहीं दबा हुआ होता है। फिल्म के सारे किरदार इस तरह गढ़े गए हैं कि वे सिनेमाई नहीं, जीवन के किरदार लगते हैं।

अभिनय के लिहाज से बात करें तो यह वरुण धवन के करियर की सर्वश्रेष्ठ फिल्म है। वह इस फिल्म में हैरान कर देते हैं। उन्होंने डैन के किरदार की मासूमियत, संजीदगी, पीड़ा को बेहतरीन तरीके से अभिव्यक्त किया है। उन्होंने व्यावसायिक जोखिम लेकर यह सिद्ध किया है कि वह सिर्फ ‘बद्रीनाथ की दुल्हनियां’ और ‘जुड़वां 2’ जैसी फिल्मों के लिए नहीं बने हैं। उनमें ‘अक्टूबर’ के डैन को भी जिंदा करने का माद्दा है। वरुण कुछ सालों बाद जब अपने करियर पर निगाह डालेंगे तो गर्व महसूस करेंगे कि वह ‘अक्टूबर’ का हिस्सा थे। अपनी पहली फिल्म में ही बनिता संधू बेहद प्रभावित करती हैं। उनका काम बहुत मुश्किल था, लेकिन उन्होंने बहुत बेहतरीन तरीके से किया है। शिवली की मां के रूप में गीतांजलि राव का अभिनय अद्भुत है। उनके एक्सप्रेशन इतने सजीव लगते हैं, जैसे वह वास्तव में उस दुख से गुजर रही हैं, जो वह सिनेमा के पर्दे पर झेल रही हैं। बाकी कलाकारों का अभिनय भी अच्छा है।फिल्म की सिनमेटोग्राफी बहुत सुंदर है। दिल्ली के लैंडस्केप को उन्होंने बहुत खूबसूरती से पकड़ा है और कुल्लू के दृश्यों को भी पूरी खूबसूरती से दर्शकों के सामने पेश किया है। चंद्रशेखर प्रजापति की एडिटिंग बहुत चुस्त है। फिल्म का संगीत बहुत खास नहीं है, लेकिन शांतनु मोइत्रा का बैकग्राउंड म्यूजिक बेहतरीन है। यह फिल्म के माहौल को शानदार तरीके से सपोर्ट करता है, उसको गहराई प्रदान करता है।

इस फिल्म का हरसिंगार से गहरा संबंध है। दरअसल, हरसिंगार का पेड़ अक्टूबर में अपने उरूज पर होता है। इस माह में उस पर सबसे ज्यादा फूल खिलते हैं। फिल्म की नायिका का नाम शिवली है, जो हरसिंगार का ही दूसरा नाम है। ‘अक्टूबर’ की स्पेलिंग में भी दूसरे ‘ओ’ की जगह हरसिंगार का ही एक फूल है। यह फिल्म भी हरसिंगार की तरह ही सादगीपूर्ण सौंदर्य से भरी है और उसी की तरह भीनी-भीनी खुशबू बिखेरती है। लोक मान्यता के अनुसार हरसिंगार के पेड़ को ‘दुखों का वृक्ष’ भी कहते हैं। इसकी भी एक कहानी है। इस पूरी फिल्म में भी दुख अनिवार्य रूप से उपस्थित है, जो हमें मनुष्य के तौर पर समृद्ध करता है। जब हम सिनेमाहॉल से बाहर निकलते हैं तो ‘सामान्य’ होने में वक्त लगता है। ऐसी फिल्में जरूर देखी जानी चाहिए।

 


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