पंखुरी सिन्हा की कविताएं
By: Devendra Gautam
5/24/2018 2:57:01 PM
आवाज़ की नाकामी
कविता पूरी कर
जब तक वह डाकखाने पहुंची
शहर में फिर एक बलात्कार हो गया था
विभत्स, भयानक
और उसकी प्रेम कविता
उतनी ही बेकार हो गयी थी
जितनी बलात्कार के वक़्त की चीखें।
वर्गीकरण
इतने जघन्य बलात्कार के बाद भी
बहस ख़त्म नहीं हो रही थी
कि किस हद तक आयोजित
सामूहिक, नीतिगत
पक्षपात किया गया था
उसके साथ
व्यवस्था की सोची समझी नीति की तरह
करके उसे हर कदम पे गुमराह
पेश कर हर दिन
एक गलत सवाल
पेश कर हर दिन एक विकृत चुनौती
कि क्या जगह की समझ है उसे
बिलकुल साम्राज्यवाद के समय की तरह
करके अपने लोगों का इस्तेमाल
फिर अपने अपनों का इस्तेमाल
अंतहीन सिलसिला पक्षपात का
और अब इलाका भरता जा रहा था
हर दिन बलात्कार की खबर से
बद से बदतर
दुर्गति
लड़ाई का बनाकर अस्त्र
कहीं बलात्कार, कहीं अत्याचार
बद से बदतर अत्याचार
दुर्गति
सत्ता, शाषण, समाज
उस हर कुछ की
जिसे पहचाना जा सकता था
जिसके कुल जमा जोड़ से
सबकी हस्ती थी
पर यहीं सारी बहस मुकम्मल थी
कि कितनी वर्गीकृत थी
वह हस्ती।
बिम्ब
मेरे नहीं
बिम्ब केवल
कवि की दलील नहीं
पोएटिक लाइसेंस की बात नहीं
ये तर्क नहीं
कि कविता है
ख़बर नहीं
न भर्त्सना कहर की
बिम्ब केवल
फटते हुए ह्रदय के
ह्रदय विदारक ख़बरों के
ज़ार ज़ार क्रंदन के
अबला नारियों के
बिम्ब उस एक दुखियारे मन का
जो समझ नहीं पाता कि क्यूँ खफा हैं उससे
दुनिया भर की खुशियाँ
बिम्ब कराहते सरापते शब्दों का
बिम्ब उस गवई राजनीति का
जो दबी ज़बान कहता है
कि वो अकेली औरत तो डायन है
झोपड़ पट्टी में अपनी
आग लगाने के तिकड़म करती है
जादू पूजती है
टोना भी
फलां औरत नागिन अवतार है
पर दूर ऐसे सब तंत्रों से
बिम्ब केवल
ह्रदय के फटने का
अकेला, असहाय ह्रदय
रुक जाए कभी
कहीं अकेला
ऐसे नाकाम खौफों का
गगनचुम्बी इमारतों की आला
उम्दा कुर्सियों का
मन रुपी आकाश पर
किसी के फूल बनकर खिलने का
बिम्ब कोई ऐसा खूबसूरत…………………
सवाल का हल
जो हल कर रही हो तुम
वो सवाल नहीं है
सवाल ये नहीं है
कि मेरे तुम्हारे बीच क्या है
कितना प्यार, कितनी नफरत
आक्रोश कितना, गणित कितना
सवाल ये है कि वो लोग कहाँ हैं
हमारे कितने दूर, कितने पास
जो तय कर रहे हैं
कि हमारे बीच क्या हो
क्या ये सच नहीं है?
कि वो आसपास हैं
करीब हमारे?
माजरा
सुबह, जो आने वाली थी
भयानक उम्मीद के साथ
भयानक यानि ताबड़ तोड़, लिखने के लिए
जैसे अंतहीन हो समय
और ढलने न वाला हो दिन
और न उम्र उसकी
सुबह जिसका इंतजार था
लगातार नींद में
नींद सिर्फ इसलिए थी
कि सुबह हो
कोई और ख्याल नहीं
न प्रेमी की बाहें
न रुमान उसका
दूर के रुमान का नशा भी नहीं
किसी तीसरे का ख्याल भी नहीं
न और कोई बातें
बाज़ार की पूरी लक-दक
दप दप रंग सारे
भीतर खूबसूरत कांच के
बिकाऊ
फैलते
आहिस्ता
उतर कर कैनवस से
और कहीं
उसकी नींद में नहीं
और समेटते ही पोथी, पतरा
दफ्तर नहीं
सिर्फ सुबह
ताबड़ तोड़ लिखने को
फिर कहाँ से भयानक आक्रोश ये?
क्यूँ जागना जैसे किसी दुस्वप्न में?
किसकी आवाज़ ये
कि तुम्हारे द्वारा निर्मित है ये?
दुहस्वप्न ये ?
ये जिद्दी, बूढी, झुर्रीदार आवाज़ ?
कवितायेँ अभी और भी हैं
हाँ, ये सच है
नमकीन खाने के बाद
उसकी आवाज़ पूरी तरह
खुल जाती थी
और वह अच्छा आलापती थी
अच्छा जपती थी
पर उसकी आवाज़ जादुई होती थी
उसे ख़त लिखने से पहले
वह उसे बहुत समय से
लिख रही थी
कि वह उसे इस जेल से बाहर निकाले
वह किसी राजा की जेल में है
मालूम नहीं
किस राजा की जेल में है
यही तो तहकीकात थी
पर जब वह उसे लिखती थी
उसके अक्षर बोलते थे
लिपि गाती थी
उसकी आँखों में अजनबी देशों की हवाएं होती थी
जादू का काजल होता था।
----------------------------------- पंखुरी सिन्हा