अराजकता की ओर बढ़ता समाज

By: Devendra Gautam
6/23/2018 5:05:54 PM
Ranchi

 

न ऱिश्तों की मधुरिमा बची न मर्यादा

देवेंद्र गौतम

झारखंड के चाईबासा जिले के एक छोटे से गांव मुरुमुबुरा की घटना है. 15 वर्षीय गांधी गोप ने अपने 37 वर्षीय पिता सुंदरलाल गोप की लकड़ी से पीट-पीटकर हत्या कर दी. कारण सिर्फ इतना था कि उसने बेटे के मोबाइल को नापसंद कर दिया था. उसे घटिया बता दिया था. एक दिन पहले वे बेटे का मोबाइल मांगकर ले गए थे. अगले दिन यह कहकर वापस कर दिया कि यह मोबाइल बेकार है. अपने मोबाइल के खिलाफ अपने पिता की टिप्पणी पर वह इतना उतेजित हो गया कि उसने वहीं अपनी मोबाइल पटककर तोड़ दी और पिता से बहस करने लगा. विवाद इतना बढ़ता गया और वह लक़ड़ी का एक टुकड़ा उठाकर पिता पर हमला कर बैठा और उन्हें पीट-पीटकर मार डाला. उस समय वह यह भी भूल गया कि पिता पालनहार हैं और वह उनपर आश्रित है। जिस मोबाइल की बुराई वह बर्दाश्त नहीं कर पा रहा उसे उन्हीं ने खरीदवाया था. झारखंड के अखबारों ने इस घटना को संक्षिप्त समाचारों के बीच छोटी सी जगह दी. लेकिन इस घटना में परिवार नामक संस्था और सामाजिक मूल्यों के विघटन का कितना बड़ा संकेत इसके अंदर छुपा है. हमारा सामाजिक जीवन किस दिशा में जा रहा है. मानवीय संवेदना कहां गुम हो गई है. रिश्तों की मधुरिमा और मर्यादा कहां छूट गई है. ऐसे कितने सारे सवाल खड़े हो रहे हैं. इसपर किसी ने गौर नहीं किया. मीडिया के लिए भले महत्व नहीं रखती हो लेकिन यह कोई सामान्य घटना नहीं है.

निश्चित रूप से 15 वर्ष का नाबालिग बच्चा अभी स्कूल में पढ़ रहा होगा. उम्र के हिसाब से उसे भूत-भविष्य और वर्तमान की समझ नहीं होगी. कल की चिंता नहीं होगी. इस उम्र में मोबाइल के प्रति दीवानगी हो सकती है लेकिन उस परिवेश का क्या जिसमें उसे पाला पोसा गया है. उन मूल्यों का क्या जिनसे उसे परिचित नहीं कराया गया. उन संस्कारों का क्या जो उसे नहीं दिया गया. आश्चर्य है कि यह वारदात एक गांव में घटित हुई जहां सांस्कृतिक मूल्यबोध शहरों की अपेक्षा अभी भी बचे हुए हैं. जहां संस्कारों की पाठशाला के रूप में बुजुर्गों की मौजूदगी है.

जो कुछ हुआ उसके लिए उसके पिता को भी कम दोषी नहीं माना जा सकता. उनके लालन पालन के तरीके और एक जागरुक नागरिक बनाने की जिम्मेदारी के प्रति लापरवाही पर सवाल खड़े किए जा सकते हैं. बड़े-छोटे का लिहाज करना अगर उसे सिखाया गया होता तो वह पिता से न बहस करता न हाथ उठाता. अत्यधिक दुलार और लाड़-प्यार के कारण बच्चा उदंड होता गया और बड़ों ने उसे नियंत्रित करने की कोशिश नहीं की. ऐसी उदंडता एक दिन में नहीं आ सकती. लंबे समय से इसके विकास की प्रक्रिया चल रही होगी जिसपर गौर नहीं किया गया. उसके मनोविज्ञान को समझने का कोई प्रयास नहीं किया गया. बच्चा कोई महानगर का नहीं था कि अभिभावक को अति व्यस्तता के कारण उसपर ध्यान देने का समय नहीं मिलता हो. से जरूरी नहीं समझा गया. किशोरावस्था व्यक्तित्व के विकास के संदर्भ में सबसे संवेदनशील और महत्वपूर्ण अवस्था होती है. इस उम्र में माता-पिता को काफी समझदारी और सतर्कता की दरकार होती है. बाल मनोविज्ञान की थोड़ी सी जानकारी हर माता पिता को होनी चाहिए. लेकिन भारतीय समाज इसके प्रति उदासीन है. हम पाश्चात्य संस्कृति की नकल तो कर रहे हैं लेकिन उसके सकारात्मक गुणों को आत्मसात नहीं कर रहे हैं. आधुनिकता विचारों में होनी चाहिए. मोबाइल और इंटरनेट का इस्तेमाल कर लेने से, थोड़ी बहुत अंग्रेजी बोल लेने से, सूट-पैंट और टाई लगा लेने से कोई आधुनिक नहीं हो जाता. सवाल है कि जब नाबालिग बच्चों को मोबाइल कंपनियां सीम नहीं देतीं तो उन्हें मोबाइल खरीदकर देना कितना तर्कसंगत था. उन्होंने मोबाइल दिया. अपने आइडी पर सीम दिया. उसे मोबाइल से चिपके रहने पर कभी फटकार नहीं लगाई. यह स्मार्ट फोन का जमाना है. बच्चा मोबाइल पर ब्लू फिल्म देख रहा है या ज्ञान-विज्ञान की जानकारी ले रहा है इसे देखने की फुर्सत नहीं. बस यही काफी है कि उसकी उम्र के दूसरे बच्चों से ज्यादा चीजें उसके पास हैं. वह किसी के कम नहीं है. सिर्फ समाज में झूठी शान और रुत्बे के दिखावे के लिए माता-पिता बच्चों को ऐसी चीजें दे देते हैं जो उन्हें गलत दिशा की ओर ले जाती है. चाहे वह मोबाइल हो, बाइक हो या लैपटाप हो. उसके सही इस्तेमाल की चिंता नहीं करते.

दो-तीन साल पहले की घटना है। रांची के एक बड़े स्वीट हाउस के मालिक ने अपने नाबालिग बेटे को रेस में इस्तेमाल होने वाली महंगी बाइक दिला दी. अपने मिलने वालों से वे बड़े गर्व से कहते थे कि बेटे ने जिद कर दी तो खरीदना पड़ा. बेटा बाइक को लेकर शहर की सड़कों पर उधम मचाता. उन्हें जानकारी भी होती तो ध्यान नहीं देते. बाइक तो दिला दी लेकिन ट्रैफिक रूल्स की जानकारी देनी जरूरी नहीं समझी. ड्राइविंग लाइसेंस के अभाव में या तेज ड्राइविंग के कारण कभी ट्रैफिक पुलिस के चक्कर में पड़ता तो पैसे और पैरवी के बल पर मैनेज कर लिया जाता. उसने बाइकर्स क्लब ज्वाइन कर लिया. धीरे-धीरे स्टंट करना सीखने लगा. एक दिन हाइवे पर स्टंट कर रहा था कि एक ट्रक की चपेट में आ गया और उसकी मौत हो गई. पिता की दौलत धरी की धरी रह गई. अब अफसोस करने के अलावा कोई चारा नहीं था. आए दिन इस तरह की घटनाएं घटती रहती हैं. अभी तक बाइकर्स गैंग के जितने लोग पकड़े गए हैं उनमें ज्यादातर बड़े बाप के बिगड़े बेटे थे. दौलतमंद होना और बात है, उसका दिखावा करना और बात. आधुनिक होना और बात है उसे ओढ़ने की कोशिश करना और बात. लेकिन कौन समझे कौन समझाए.

 

 


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