पूर्ण आनंद के प्रतीक हैं भगवान कृष्ण

By: Dilip Kumar
9/3/2018 2:07:17 PM
नई दिल्ली

जन्माष्टमी भगवान कृष्ण का जन्म उत्सव है। कृष्ण को जगद्गुरु कहा जाता है। कृष्ण एक पूर्ण आनंद की प्रतिमूर्ति हैं। इसीलिए उनके साथ कुछ शरारतों की घटनाएं भी जुड़ी हुई हैं। शरारत का उदय ही प्रसन्नता से होता है। लोग उनकी शिकायतें करने आते, लेकिन उन्हें देखते ही सभी शिकायतें और गुस्सा गायब हो जाते। शुद्ध प्रसन्नता और आनंद के समक्ष कोई शिकायत और गुस्सा नहीं ठहरता है। आपके जीवन में सब कुछ ठीक हो तो आप खुल कर मुस्करा सकते हैं, जब बुरे दिनों में आप मुस्करा पाएं तो ही आपने जीवन में कुछ उपलब्धि प्राप्त की है। कृष्ण में यही गुण था। उनकी मुस्कान सबको मोहित करती थी।

उनका मटका तोडऩा, उसमें से मक्खन निकलना..., इस कहानी का गहरा अर्थ है। यहां पर मटके का तात्पर्य है शरीर और मक्खन का अर्थ है सार। जब हम शरीर की सीमा से अपने आप को बाहर पाते हैं तो हमें जीवन के सार का पता चलता है। हमारे असीम चैतन्य को खिलने से कौन रोकता है, 'मैं एक शरीर हूंÓ- यह विचार ही एकमात्र बंधन है। जब हम प्रसन्न होते हैं तो सब कुछ तोड़ कर हम हंसते हैं। उसी प्रकार जब हम प्रेम में हों तो प्रेम से खिल उठते हैं। हमारा सार प्रेम के रूप में बाहर निकलता है। कृष्ण को माखन चोर कहा जाता है; एकमात्र वही चोर हैं, जिनका पूर्ण सम्मान हुआ है।

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हम उन्हें चितचोर भी कहते हैं, जिसका अर्थ है मन को चुराना। उनका जन्म देवकी यानी शरीर और वासुदेव यानी श्वास के यहां पर हुआ। जब प्राण का शरीर के साथ समागम होता है तो आनंद का जन्म होता है। इसीलिए कृष्ण को नंदलाल कहा जाता है, क्योंकि नंद या आनंद का अर्थ है प्रसन्नता। जब कृष्ण का जन्म हुआ था सभी पहरेदार सो गए थे। ये पहरेदार और कोई नहीं, हमारी पांचों इंद्रियों को कहा गया है, जो आंतरिक प्रेम और आनंद को अनुभव नहीं होने देते। कृष्ण का मामा कंस और कोई नहीं, हमारा अहंकार है, जिसने हमारे वासुदेव और देवकी को बंधक बना रखा है, जिसके कारण हमारे प्राण और शरीर कैद में हैं।

अहंकार सदैव प्रसन्नता से दूर होता है, इसीलिए यह प्रसन्नता का वध करने के प्रयास में लगा रहता है। बच्चे सदैव प्रसन्नता से भरे होते हैं, क्योंकि उनमें अहंकार नहीं होता। जिस क्षण हम में पृथकता या अलग होने की प्रवृत्ति जन्म लेती है, आनंद समाप्त हो जाता है। इसीलिए कृष्ण को आधी रात को लेकर जाना पड़ा, क्योंकि उस आनंद को कंस समाप्त नहीं कर सकता था। कृष्ण को बचाने के लिए वासुदेव उनको यमुना नदी,जो प्रेम का सूचक है, के पार लेकर गए।

पूरे साहस से भरे वासुदेव बाढ़ से उफनती यमुना नदी को पार कर रहे थे और जैसे ही वे डूबने को हुए, तभी कृष्ण ने अपना पैर टोकरी से बाहर निकाल कर यमुना के उफान को रोका। इसका अर्थ है कि जब भी विपत्ति नाक तक आती है तो ईश्वरीय सहायता सदैव वहां पर रहती है। इस से ऊपर कठिनाई आ नहीं सकती, क्योंकि यह इसके बाद ईश्वर की जिम्मेदारी बन जाती है। कृष्ण ने नियमों को माना, लेकिन फिर भी कुछ घटनाएं ऐसी हैं, जहां कृष्ण ने नियम को अनदेखा किया।

ईश्वर रचना के हर हिस्से में मौजूद है। दिव्यता शर्तरहित है, लेकिन हमारी धारणाएं हमें दिव्य प्रेम और मासूमियत से दूर ले जाती हैं। इसीलिए आलोचनात्मक नहीं बनें। जो जैसा है, उसे स्वीकार करें। एक बार कृष्ण को बुरी तरह प्रभावित किया गया। एक मणि के चोरी होने का आरोप उन पर लगाया गया। उन्होंने प्रत्येक व्यक्ति को यह बताया कि मणि उनके पास नहीं है, लेकिन किसी ने विश्वास नहीं किया। यहां तक कि रुक्मिणी, सत्यभामा व बलराम ने भी नहीं किया।

यह देख कर कृष्ण अप्रसन्न हो गए। तब नारद मुनि वहां आए और उन्होंने बताया कि यह आपका मन है, जो उत्तेजित हुआ है, आप स्वयं नहीं। स्व तो सभी प्रकार के मन से परे होता है। मन की खिन्नता को देखने से हम उस खिन्नता से बाहर चले जाते हैं। इस प्रकार जब भी आप खिन्न हों और यदि आप ये सोच रहे हों कि ऐसा आपके साथ नहीं होना चाहिए था, तो उसे तुरंत समर्पण कर दें। यह मन ही है, जो खिन्न होता है, आप स्वयं कभी खिन्न नहीं होते। कृष्ण एक पांव को धरती पर पूरी तरह जमा कर और दूसरे पांव को धरती पर हल्के से रख कर खड़े होते हैं। जीवन को एक पूरे संतुलन के साथ जीना चाहिए।

जीने की कला का अर्थ है अध्यात्म और भौतिकता में संतुलन कैसे बनाया जाए। जब आनंद एक बार आप में उत्पन्न होता है तो आप इसे परिवार में बांटते हैं। पूरा विश्व आपका परिवार है। तब आपका आनंद असीम हो जाता है और आप ही कृष्ण बन जाते हैं। अपने अंदर के आनंद को जगाना ही श्रीकृष्ण का संदेश है। यही जन्माष्टमी पर्व का संदेश है।


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