राम लिंगेश्वर : यहां आर्किमिडिज का सिद्धांत हो जाता है फेल

By: Dilip Kumar
7/27/2019 6:38:09 PM
नई दिल्ली

विश्व धरोहर की दौड़ में शामिल तेलंगाना के वारंगल में स्थित रामप्पा शिव मंदिर का नाम उसके शिल्पकार के नाम पर है। काकतिया वंश के महाराज ने इस मंदिर का निर्माण 12वीं सदी में कराया था। यह मंदिर काकतीय नरेश रूद्रदेव प्रथम ने बनवाया था। वर्ष 1163 में। जिस वेदिका पर मंदिर खड़ा है, वह एक मीटर ऊंची होगी। परिधि 31 गुणा 25 मीटर। केंद्रिय सभाकक्ष के चारों ओर मंदिर बने हैं। तीन मंदिर विष्णु, शिव और सूर्य के। रामप्पा मंदिर इतना पुराना है फिर भी यह टूटता क्यों नहीं जब कि इस के बाद में बने मंदिर खंडहर हो चुके है। यह बात पुरातत्व वैज्ञानिकों के कान में पड़ी तो उन्होंने पालमपेट जा कर मंदिर कि जाँच की तो पाया कि मंदिर वाकई अपनी उम्र के हिसाब से बहुत मजबूत है। काफी कोशिशों के बाद भी विशेषज्ञ यह पता नहीं लगा सके कि उसकी मजबूती का रहस्य क्या है। फिर उन्होंने मंदिर के पत्थर के एक टुकड़े को काटा तो पाया कि पत्थर वजन में बहुत हल्का है।

उन्होंने पत्थर के उस टुकड़े को पानी में डाला तो वह टुकड़ा पानी में तैरने लगा यानि यहां आर्किमिडिज का सिद्धांत गलत साबित हो गया। तब जाकर मंदिर की मजबूती का रहस्य पता लगा कि और सारे मंदिर तो अपने पत्थरों के वजन की वजह से टूट गये थे पर रामप्पा मंदिर के पत्थरों में तो वजन बहुत कम है। इस वजह से मंदिर टूटता नहीं। अब तक वैज्ञानिक उस पत्थर का रहस्य पता नहीं कर सके कि रामप्पा यह पत्थर लाये कहाँ से क्यों कि इस तरह के पत्थर विश्व में कहीं नहीं पाये जाते जो पानी में तैरते हों. तो फऱि क्या रामप्पा ने 800 वर्ष पहले ये पत्थर खुद बनाये? अगर हाँ तो वो कौन सी तकनीक थी उनके पास। वो भी 800-900 वर्ष पहले। रामप्पा या राम लिंगेश्वर मंदिर आन्ध्र प्रदेश के वरंगल से 70कि. मी दूर पालम पेट में स्थित है। यह मंदिर 6 फीट ऊँचे मंच (प्लेटफार्म) पर बना हुआ है।

मंदिर का इतिहास

तेलंगाना के काकतिया वंश के महाराजा गणपति देवा ने सन 1213 में शिव मंदिर का निर्माण कराना शुरू किया। इस मंदिर के शिल्पकार रामप्पा के काम से राजा इतने प्रसन्न हुए कि इसका नाम उन्हीं के नाम पर रख दिया। इस मंदिर को बनने में चालीस साल लगे थे। यह मंदिर छह फीट ऊंचे प्लेटफार्म पर बनाया गया है और इसकी दीवारों पर महाभारत और रामायण के दृश्यों को उकेरा गया है। इस मंदिर में नौ फीट ऊंची नंदी की भी मूर्ति है।

शिवरात्रि के दिन यहां देश भर से श्रद्धालु दर्शनों के लिए आते हैं। 800 वर्ष पूर्व, 13वीं सदी के आसपास तेलुगु-भूमि पर ककातियों का राज था। उन्होंने ऐसे कई भवन बनाए, जो अतिविनाशकारी भूकम्प के झटकों को सहकर भी ज्यों के त्यों खड़े हैं। इनमें से एक है, 1000 खम्भों पर खड़ा रामप्पा मंदिर। इस मंदिर को 'सैंड बॉक्स' कनीक द्वारा निर्मित किया गया। सन् 1980 में, भारतीय पुरातत्त्व विभाग ने एन.आई.टी. वारंगल के साथ मिलकर ककातियों की निर्माण शैली पर शोध किया। उन्होंने पाया कि ककातियों ने रेत का भरपूर उपयोग मंदिर की नींव बनाने में किया। भवन के आकार, बनावट और क्षेत्रफल को ध्यान में रखते हुए 3 मीटर गहरी नींव को खोदा गया। फिर उसे रेत से भरा गया। इसे मजबूत बनाने हेतु ग्रेनाइट , गुड़ तथा कराक्या जैसे पदार्थों का उपयोग भी किया गया। यही नहीं, यदि भूकम्प के झटके रेत को चीर या पार कर भवन तक पहुँच भी जाएँ, तो इसका भी इंतज़ाम किया गया।

पिघले लोहे को शिलाओं के बीच बनाए गए सुरंगों जैसे छेदों में भरा गया। इन छेदों को आयरन डॉवल्स कहा जाता है। ये डॉवल्स शिलाओं को आपस में फ्रेम की तरह बाँध कर रखते हैं। आमतौर पर आजकल आधारशिलाओं की केवल मजबूती पर ध्यान दिया जाता है, जिससे कि वे भवन का वजऩ सहन कर सकें। लेकिन ककातियों की दूरदर्शिता, वैज्ञानिक अभिरुचि व जागरूकता देखिए! प्रशंसनीय! उन्होंने रेत का प्रयोग एक कुशन ''मसनद या गद्दे की तरह किया, जिससे कि वह धरती के चारों ओर से आए झटकों को सोख ले। इसलिए जब भी भूकम्प आते, प्राथमिक व माध्यमिक झटके भवन तक पहुँचने से पहले ही रेत द्वारा जज़्ब कर लिए जाते। यही वजह है कि सत्रहवीं सदी के भयंकर भूकम्प में भी रामप्पा मंदिर को न के बराबर नुकसान हुआ।


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