फ़िरोज़ बख़्त अहमद का कॉलम: क्या दलित भाईयों के धर्मांतरण के बाद डबल आरक्षण उचित है? 

By: Dilip Kumar
3/11/2023 11:30:32 AM

अभी हाल ही में विश्व हिंदू परिषद ने विश्व संवाद केंद्र, गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय (जीबीयू) और “हिंदू विश्व” पाक्षिक पत्रिका के संयुक्त संयोजन से “कन्वर्जन और आरक्षण” (धर्मांतरण और आरक्षण) पर न्यायमूर्ति केजी बालकृष्णन आयोग के संदर्भ में एक संगोष्ठी का योजन किया जिसमें देश की इस ज्वलंत समस्या पर गूढ व गंभीर विचार किया गया और बालकृष्णन आयोग के संदर्भ की शर्तों से जुड़े 17 विषयों का चयन पर आयोजकों ने इन पर पेपर मंगवाने का आह्वान किया, जिस पर देश भर से 60 पूर्व न्यायाधीशों, अधिवक्ताओं, पत्रकारों, शिक्षकों, वैज्ञानिकों, चिकित्सकों आदि ने अपने लेख भेजे और विचारों को विश्व हिन्दू परिषद के अंतर्राष्ट्रीय अध्यक्ष व वरिष्ठ अधिवक्ता, आलोक कुमार की अध्यक्षता में सुना गया और निचोड़ कुछ इस प्रकार निकला कि अनुसूचित जातियों को इस्लाम और ईसाई धर्मों में शामिल करने से आरक्षण पर संवैधानिक भावना कमजोर होगी, जिस पर वीएचपी के सचिव सुरेन्द्र कुमार जैन ने बड़ी दृढ़ता और सफाई के साथ कहा कि अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण अटल है मगर धर्मांतरण के बाद इसकी मूल भावना की जाली-भुनी खिचड़ी से किसी का पेट नहीं भरने वाला। 

कॉन्क्लेव के अध्यक्ष आलोक कुमार ने बताया कि अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण जारी रहेगा। अनुसूची में जाति के चयन का आधार सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक पिछड़ापन है। 1931 की जनगणना के लिए तत्कालीन जनगणना आयुक्त डॉ जे. एच. हटन द्वारा तैयार की गई प्रश्नावली ने सामाजिक पिछड़ेपन के निर्धारण का आधार बनाया था। इसमें निम्नलिखित प्रश्न शामिल था: “वे जातियां, जिनके वारे में उच्च जाति के व्यक्ति यह मानते थे कि उनके छूने या पास आने से वे दूषित हो जाएंगे, उनकी समरसता के लिए क्या किया जाए?” उन्होंने कहा कि भारत में धर्म परिवर्तन मुख्य रूप से बल, छल और प्रलोभन से होता है। विहिप नेता ने कहा कि हर कोई इस तथ्य से अवगत है कि संविधान में अनुसूचित जाति (एससी) और एसटी के विकास के लिए कुछ सुविधाएं प्रदान की गई हैं। इसके आधार पर राज्य ने हिंदू समाज में अछूत मानी जाने वाली जातियों की पहचान की। यही वर्गीकरण बाद में अस्पृश्यता को खत्म करने के लिए भारत के संविधान में अनुच्छेद 17 को पेश करने का आधार बना। फिर भी, अनुसूचित जातियों के खिलाफ सामाजिक भेदभाव का अभिशाप विभिन्न रूपों और स्तरों में जारी है। 

इसलिए, आरक्षण जारी रहना चाहिए और अतीत में अछूत मानी जाने वाली जातियों तक ही सीमित होना चाहिए। इब्राहीमी संप्रदाय, यानी इस्लाम और ईसाई घोषणा करते हैं कि उनमें कोई जाति व्यवस्था नहीं है, इसलिए, अस्पृश्यता का कोई अभ्यास नहीं है। इस प्रकार एक अनुसूचित जाति का व्यक्ति जो इस्लाम या ईसाई धर्म में परिवर्तित हो जाता है, सामाजिक कलंक को पीछे छोड़ देता है और उसे अनुसूचित जाति श्रेणी में आरक्षण नहीं दिया जा सकता है। यही हाल मुस्लिम पसमानदा का भी है, जिन्हें अशराफ़ (ऊंच जाति), अजलाफ़ या अरजाल कहते है, जो कि बिलकुल गैर कानूनी और गैर इस्लामी है। इन ऊंच जतियों को “एटीएम” (अरब/तुर्क/मुगल) भी कहा जाता है। वास्तव में विश्व हिन्दू परिषद, कई वर्ष से समाज में, अनुसूचित जनजातियों की समरसता, सद्भावना, संभावना व उनके प्रत सदाचार के लिए मेहनत करता चला आया है। इस मामले में यह आरएसएस के रास्ते पर ही चल रही है किपिछड़े समाज को साथ में जोड़कर चलना है। संगोष्ठी के शुरू में विहिप के सर्वे सर्वा, आलोक कुमार ने बड़ी ही ईमानदारी के साथ बताया कि सामाजिक छूआ-छूत के चलते कुछ तब्क़ पीछे छूट गए जिनको बराबरी पर लाने ले लिए हटन ने ही नहीं बल्कि संत तुकाराम, संत ज्ञानेश्वर, गांधीजी और वीर सावरकर ने भी बड़ी कोशिशें कीं जिंका असर आज देखने में आ रहा है।

 ठीक है आर्थिक तौर पर तो इन कमजोर तबकों को मदद मिली है, मगर आर्थिक से अधिक आवश्यकता इस बात की है कि मस्तिष्क में जो गलत अवधारणा इन तबकों के ताल्लुक़ से आज भी घुसी हुई है, वह निकलनी चाहिए कि ये निम्न हैं। मौजूदा दौर के बड़े दलित नेता और नामचीन सरमायाकार, मिलिंद कांबले से बात हुई तो उन्होंने बताया कि आज जबकि वह भारत के एक बड़े उद्योगपति हैं, मगर कोई इक्का-दुक्का व्यक्ति ऐसा टकर जाता है कि जो उनके साथ बैठ कर चाय-पान करने से परहेज करता है, बावजूद इसके कि वह एक अरबपति व्यक्ति हैं! वास्तव में यही वह मानसिकता है जिसका खात्मा होना चाहिए। विहिप के प्रवक्ता, विजय शंकर तिवारी ने बताया कि धर्मांतरण को देशव्यापी विभीषिका बताते हुए केंद्र व राज्य सरकारो से अवैध धर्मांतरण को रोकने के लिए कठोर कानून बनाने की मांग की है ताकि लालच, भय या धोखे से धर्मांतरण करवाने वालों पर कठोर कार्रवाई की व्यवस्था हो सके। इसके साथ ही तिवारी ने विहिप के पूर्व अध्यक्ष बी पी सिंघल के हवाले से कहा कि अनुसूचित जनजातियों के जिन व्यक्तियों ने धर्मांतरण किया है, उन जनजातियों को मिल रहे लाभों से वंचित करने के लिए भी आवश्यक संविधान संशोधन करना चाहिए। 

एक छोटी से घटना लेखक को याद आती है कि जब वह मौलाना आज़ाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी (मनू) का कुलाधिपति था तो एक दलित प्रोफ़ेसर ने उससे शिकायत की कि कुलपति ने उसे झूते इल्ज़ाम में सस्पेंड करदीय था और उसे दफ्तर में सबके सामने बड़ा वांछित और जलील करते थे कि वह नीच जाति का है, काला-पीला है आदि। वह “मानूटा” अर्थात शिक्षक समिति का अध्यक्ष भी था। कुलपतिजी उसकी फ़ाईलें उठा कर उसके मूंह पर भी मार देते थे। लेखक को उसकी वेदना का पूरा एहसास था और उसने एससी कमिशन (अनुसूचित जनजाति आयोग) में उसके अध्यक्ष विजय सांपला के पास लिखित में शिकायत की। हालांकि कुलपति ने कहलवाया कि हम दोनों मुस्लिम हैं, तो इस “नीच जाति” वाले व्यक्ति को लेकर क्यों लड़ें, जिसपर लेखक ने उन्हें हड़काया कि इस्लाम में तो सबको बराबर समझा जाता है और कहा गया है, “एक ही साफ में खड़े हो गए महमूद-ओ-अयाज़/ न कोई बंदा रहा न बंदा नवाज़!” आनन-फ़ानन में सांपलाजी ने कुलपति, रजिस्ट्रार, लेखक और दलित प्रोफ़ेसर को अपने कोर्ट में बुलाया और फैसला दिया कि उस दलित प्रोफ़ेसर से कुलपति माफी मांगे और लगभग साल भर सस्पेंशन में काटे गए पैसे भी वापिस करे। हालांकि इस छुआछूत के विरोध में कानून आ गया है, मगर मानसिकता से अभी पूर्ण रूप से यह नहीं गया है, जिसे अब विहिप समाप्त करना चाहता है, भारत माता की जय!

 


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