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ललित गर्ग का कॉलम : हिन्दी है भारत के मस्तक का तिलक

By: Dilip Kumar
9/16/2024 8:21:42 PM

सम्पूर्ण भारत में 1953 से 14 सितम्बर को प्रतिवर्ष हिन्दी-दिवस के रूप में मनाया जाता है। हिंदी दिवस मनाने की आवश्यकता क्यों महसूस हुई और आज इस दिवस की अधिक प्रासंगिकता क्यों उभर रही है? क्योंकि हमारे देश में दिन-प्रतिदिन हिंदी की उपेक्षा होती जा रही है। राजनीतिक कारणों से हिन्दी को विवादों एवं संघर्षों का सामना करना पड़ रहा है। हिंदी की राह में यूं तो कई बाधाएं हैं, लेकिन सबसे बड़ी बाधा शासन में उसकी उपेक्षा और अंग्रेजीदां नौकरशाही का वर्चस्ववादी रवैया है। हिन्दी पर अंग्रेजी का प्रभाव बढ़ता जा रहा है। हिन्दी राष्ट्रीयता की प्रतीक भाषा है इसलिये हिन्दी को उचित सम्मान देते हुए, उसको राजभाषा बनाने एवं राष्ट्रीयता के प्रतीक के रूप में प्रतिष्ठापित करना हिन्दी दिवस की प्राथमिकता होना ही चाहिए। आजादी के अमृतकाल तक पहुंचने के बावजूद हिन्दी को उसका उचित स्थान न मिलना विडम्बना एवं दुर्भाग्यपूर्ण है। भारत से ठीक दो वर्ष पहले 17 अगस्त 1945 को इंडोनेशिया डच शासन से मुक्त हुआ और अपनी भाषा ‘बहासा इंडोनेशिया’ को राष्ट्रभाषा के रूप में लागू कर दिया। कुछ इसी तरह 23 अक्टूबर 1923 को जब आधुनिक तुर्की गणराज्य की स्थापना हुई, तो तत्काल तुर्की भाषा को राजकाज की भाषा के रूप में लागू कर दिया। आज हिन्दी विश्व की सर्वाधिक प्रयोग की जाने वाली तीसरी भाषा है, विश्व में हिन्दी की प्रतिष्ठा एवं प्रयोग दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है, लेकिन देश में उसकी उपेक्षा एक बड़ा प्रश्न है।

सच्चाई तो यह है कि देश में हिंदी अपने उचित सम्मान को लेकर जूझ रही है। राजनीति की दूषित एवं संकीर्ण-स्वार्थी सोच का परिणाम है कि हिन्दी को जो सम्मान मिलना चाहिए, वह स्थान एवं सम्मान राष्ट्र में अंग्रेजी को मिल रहा है। भारत सहित दुनिया के अनेक देशों में विश्व हिन्दी दिवस मनाया जाने लगा क्योंकि भारत और अन्य देशों में 120 करोड़ से अधिक लोग हिन्दी बोलते, पढ़ते और लिखते हैं। पाकिस्तान की तो अधिकांश आबादी हिंदी बोलती व समझती है। बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, तिब्बत, म्यांमार, अफगानिस्तान में भी लाखों लोग हिंदी बोलते और समझते हैं। फिजी, सुरिनाम, गुयाना, त्रिनिदाद जैसे देश तो हिंदी भाषियों द्वारा ही बसाए गये हैं। हिन्दी का हर दृष्टि से इतना महत्व होते हुए भी भारत में प्रत्येक स्तर पर इसकी इतनी उपेक्षा क्यों?

हिंदी की राह आजादी के बाद ज्यादा जटिल बनी है। आजादी से पहले ज्यादा बाधाएं नहीं थीं। इसी कारण भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के सूत्रधार महात्मा गांधी स्वयं हिंदी के हिमायती थे। उनके पहले केशव चंद्र सेन, लोकमान्य तिलक जैसी हस्तियां भी देश के हृदयों को नजदीक लाने में हिंदी को ही सक्षम एवं प्रभावी मानते थे। स्वतंत्रता संग्राम के इन महानायकों ने भावी भारत की भाषायी जरूरतों के लिहाज से हिंदी को तैयार करने की कोशिश भी की। लेकिन आजाद भारत में हिन्दी की दशा एवं दिशा ज्यादा चिन्ताजनक बनी है। महात्मा गांधी ने अपनी अन्तर्वेदना प्रकट करते हुए कहा था कि भाषा संबंधी आवश्यक परिवर्तन अर्थात हिन्दी को लागू करने में एक दिन का विलम्ब भी सांस्कृतिक हानि है। मेरा तर्क है कि जिस प्रकार हमने अंग्रेज लुटेरों के राजनैतिक शासन को सफलतापूर्वक समाप्त कर दिया, उसी प्रकार सांस्कृतिक लुटेरे रूपी अंग्रेजी को भी तत्काल निर्वासित करें।’ हिन्दी के लिये इस तरह का दर्द, संवेदना एवं अपनापन हर नागरिक में जागना जरूरी है।

वर्तमान में हिन्दी की दयनीय दशा देखकर मन में प्रश्न खड़ा होता है कि कौन महापुरुष हिन्दी को प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न करेगा? हिन्दी राष्ट्रीयता एवं राष्ट्र का प्रतीक है, उसकी उपेक्षा एक ऐसा प्रदूषण है, एक ऐसा अंधेरा है जिससे छांटने के लिये ईमानदार प्रयत्न करने होंगे। क्योंकि हिन्दी ही भारत को सामाजिक-राजनीतिक-भौगोलिक और भाषायिक दृष्टि से जोड़नेवाली भाषा है। हिंदी को दबाने की नहीं, ऊपर उठाने की आवश्यकता है। राष्ट्र भाषा सम्पूर्ण देश में सांस्कृतिक और भावात्मक एकता स्थापित करने का प्रमुख साधन है। भारत का परिपक्व लोकतंत्र, प्राचीन सभ्यता, समृद्ध संस्कृति तथा अनूठा संविधान विश्व भर में एक उच्च स्थान रखता है, उसी तरह भारत की गरिमा एवं गौरव की प्रतीक राष्ट्र भाषा हिन्दी को हर कीमत पर विकसित करना हमारी प्राथमिकता होनी ही चाहिए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के शासन में हिन्दी को राजभाषा एवं राष्ट्रभाषा के रूप में स्कूलों, कॉलेजों, अदालतों, सरकारी कार्यालयों और सचिवालयों में कामकाज एवं लोकव्यवहार की भाषा के रूप में प्रतिष्ठा मिलनी चाहिए।

हालांकि इंटरनेट के बढ़ते इस्तेमाल ने हिंदी भाषा के भविष्य के संबंध में नई राहें दिखाई है। गूगल के अनुसार भारत में अंग्रेजी भाषा में जहाँ विषयवस्तु निर्माण की रफ्तार 19 फीसदी है तो हिंदी के लिए ये आंकड़ा 94 फीसदी है। इसलिए हिंदी को नई सूचना-प्रौद्योगिकी की जरूरतों के मुताबिक ढाला जाए तो ये इस भाषा के विकास में बेहद उपयोगी सिद्ध हो सकता है। इसके लिए सरकारी और गैर सरकारी संगठनों के स्तर पर तो प्रयास किए ही जाने चाहिए, निजी स्तर पर भी लोगों को इसे खूब प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। बात चाहे राष्ट्र भाषा की हो या राष्ट्र गान या राष्ट्र गीत- इन सबको समूचे राष्ट्र में सम्मान एवं स्वीकार्यता मिलनी चाहिए। कुछ राजनीतिज्ञ अपना उल्लू सीधा करने के लिये भाषायी विवाद खड़े करते रहे हैं और वर्तमान में भी कर रहे हैं। यह देश के साथ मजाक है। जब तक राष्ट्र के लिये निजी-स्वार्थ को विसर्जित करने की भावना पुष्ट नहीं होगी, राष्ट्रीय एकता, सांस्कृतिक उन्नयन एवं सशक्त भारत एवं विकसित भारत का नारा सार्थक नहीं होगा।

हिन्दी को सम्मान एवं सुदृढ़ता दिलाने के लिये केन्द्र सरकार के साथ-साथ प्रांतों की सरकारों को संकल्पित होना ही होगा। नरेन्द्र मोदी ने विदेशों में हिन्दी की प्रतिष्ठा के अनेक प्रयास किये हैं, लेकिन उनके शासन में देश में यदि हिन्दी को राजभाषा एवं राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठापित नहीं किया जा सका तो भविष्य में इसकी उपेक्षा के बादल घनघोर ही होंगे, यह एक दिवास्वप्न बनकर रह जायेगा। हाल में कर्नाटक एवं तमिलनाडू में हिन्दी विरोध की स्थितियां उग्र बनी। हिन्दी का हर दृष्टि से इतना महत्व होते हुए भी दक्षिण भारत में इसकी इतनी उपेक्षा क्यों? क्षेत्रीय भाषा के नाम पर हिन्दी की अवमानना एवं उपेक्षा के दृश्य उभरते रहे हैं, लेकिन प्रश्न है कि हिन्दी को इन जटिल स्थितियों में कैसे राष्ट्रीय गौरव प्राप्त होगा। भाषायी संकीर्णता न राष्ट्रीय एकता के हित में है और न ही प्रान्त के हित में। प्रान्तीय भाषा के प्रेम को इतना उभार देना, जिससे राष्ट्रीय भाषा के साथ टकराहट पैदा हो जाये, यह देश के लिये उचित कैसे हो सकता है? दरअसल बाजार और रोजगार की बड़ी संभावनाओं के बीच हिंदी विरोध की राजनीति को अब उतना महत्व नहीं मिलता, क्योंकि लोग हिंदी की ताकत को समझते हैं। पहले की तरह उन्हें हिंदी विरोध के नाम पर बरगलाया नहीं जा सकता।

हिन्दी भाषा का मामला भावुकता का नहीं, ठोस यथार्थ का है, राष्ट्रीयता का है। हिन्दी विश्व की एक प्राचीन, समृद्ध तथा महान भाषा होने के साथ ही हमारी राजभाषा भी है, यह हमारे अस्तित्व एवं अस्मिता की भी प्रतीक है, यह हमारी राष्ट्रीयता एवं संस्कृति की भी प्रतीक है। भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति से आक्सीजन लेने वाले दल एवं नेता भी अंग्रेजी में दहाड़ते देखे गये हैं। राजनेता बात हिन्दी की करते हैं, पर उनका दिमाग अंग्रेजीपरस्त है, क्या यह अन्तर्विरोध नहीं है? हिन्दी को वोट मांगने और अंग्रेजी को राज करने की भाषा बनाना हमारी राष्ट्रीयता का अपमान नहीं हैं? कुछ लोगों की संकीर्ण मानसिकता है कि केन्द्र में राजनीतिक सक्रियता के लिये अंग्रेजी जरूरी है। महात्मा गांधी ने सही कहा था कि राष्ट्र भाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है।’ यह कैसी विडम्बना है कि जिस भाषा को कश्मीर से कन्याकुमारी तक सारे भारत में समझा जाता हो, उसकी घोर उपेक्षा हो रही है, हिन्दी दिवस पर इन त्रासद एवं विडम्बनापूर्ण स्थिति को नरेन्द्र मोदी सरकार कुछ ठोस संकल्पों एवं अनूठे प्रयोगों से दूर करने के लिये प्रतिबद्ध हो, हिन्दी को मूल्यवान अधिमान दिया जाये। ऐसा होना हमारी सांस्कृतिक परतंत्रता से मुक्ति का एक नया इतिहास होना।

प्रेषकः

(ललित गर्ग)
लेखक, पत्रकार, स्तंभकार
ई-253, सरस्वती कंुज अपार्टमेंट
25 आई. पी. एक्सटेंशन, पटपड़गंज, दिल्ली-92
मो. 9811051133


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