बुढ़ापे में स्मृतिलोप का अंधेरा परिव्याप्त होने की आशंका

By: Dilip Kumar
3/14/2023 10:39:58 AM

अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान सहित दुनिया भर के कई प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों की ओर से किए गए शोध में यह बताया गया है कि आने वाले वक्त में भारत में साठ साल या उससे ज्यादा उम्र के एक करोड़ से भी अधिक लोगों के डिमेंशिया यानी स्मृतिलोप की चपेट में आने की आशंका है। घोर उपेक्षा एवं व्यवस्थित देखभाल के अभाव में बुजुर्गों में यह बीमारी तेजी से पनप रही है। भारत का बुढ़ापा एवं उम्रदराज लोगों का जीवन किस कदर परेशानियों एवं बीमारियों से घिरता जा रहा है, उससे ऐसा प्रतीत होने लगा है कि उम्र का यह पड़ाव अभिशाप से कम नहीं है। एक आदर्श एवं संतुलित समाज व्यवस्था के लिये अपेक्षित है कि वृद्धों के प्रति स्वस्थ व सकारात्मक भाव व दृष्टिकोण रखे और उन्हें वेदना, कष्ट व संताप से सुरक्षित रखने हेतु सार्थक पहल करे ताकि वे स्मृतिलोप या मतिभ्रम का भी शिकार न हो जाएं। वास्तव में भारतीय संस्कृति तो बुजुर्गों को सदैव सिर-आँखों पर बिठाने और सम्मानित करने की सीख देती आई है।

जर्मन नेचर पब्लिक हेल्थ इमरजेंसी कलेक्शन में प्रकाशित अध्ययन के मुताबिक सन 2050 तक भारत की कुल आबादी में साठ साल से ज्यादा उम्र वालों की तादाद करीब उन्नीस फीसद होगी। अगर एक करोड़ से ज्यादा बुजुर्ग स्मृतिलोप जैसी समस्या के शिकार हो जाएं, तो व्यापक पैमाने पर उनका सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन किस तरह की त्रासदी का शिकार होगा, इसका सिर्फ अंदाजा ही लगाया जा सकता है। यह शोध बुढ़ापे में एक और अंधेरा परिव्याप्त होने की विडम्बना को दर्शा रहा है। वृद्धावस्था जीवन की सांझ है। वस्तुतः वर्तमान के भागदौड़, आपाधापी, अर्थ प्रधानता व नवीन चिन्तन तथा मान्यताओं के युग में जिन अनेक विकृतियों, विसंगतियों व प्रतिकूलताओं ने जन्म लिया है, उन्हीं में से एक है वृद्धों की उपेक्षा। वस्तुतः वृद्धावस्था तो वैसे भी अनेक शारीरिक व्याधियों, मानसिक तनावों और अन्यान्य व्यथाओं भरा जीवन होता है और अगर उस पर उनमें स्मृतिलोप जैसी बीमारियों हावी होने लगेगी तो वृद्धावस्था अधिक दर्दभरा हो जायेगा। वैसे ही परिवार के सदस्य, विशेषतः युवा परिवार के बुजुर्गों/वृद्धों का ध्यान नहीं रखते, उनकी घोर उपेक्षा करते या उन्हें मानसिक संताप पहुँचाते है, तो स्वाभाविक है कि वृद्ध के लिए वृद्धावस्था अभिशाप बन जाती है। इसीलिए तो मनुस्मृति में कहा गया है कि-“जब मनुष्य यह देखे कि उसके शरीर की त्वचा शिथिल या ढीली पड़ गई है, बाल पक गए हैं, पुत्र के भी पुत्र हो गए हैं, तब उसे सांसारिक सुखों को छोड़कर वन का आश्रय ले लेना चाहिए, क्योंकि वहीं वह अपने को मोक्ष-प्राप्ति के लिए तैयार कर सकता है।”

आधुनिक जीवन की विडम्बना है कि इसमें वृद्ध अपने ही घर की दहलीज पर सहमा-सहमा खड़ा है, उसकी आंखों में भविष्य को लेकर भय है, असुरक्षा और दहशत है, दिल में अन्तहीन दर्द है। इन त्रासद एवं डरावनी स्थितियों से वृद्धों को मुक्ति दिलानी होगी। सुधार की संभावना हर समय है। कई बार देखभाल और संवेदना के अभाव से उपजी निराशा और पीड़ा बुजुर्गों को असमय ही कई मनोवैज्ञानिक समस्याओं के दुश्चक्र में डाल देती है। आमतौर पर लगभग सभी समाजों में बुजुर्गों के जीवन को आसान बनाने और उनका खयाल रखने के लिए सरकारों को विशेष योजनाएं बनानी पड़ती हैं, संस्कारी एवं जिम्मेदार परिवारों में अलग से उपाय किए जाते हैं। लेकिन यह भी सच है कि वृद्धावस्था में पहुंचे बहुत सारे लोगों को कई बार अपनों के हाथों भी उपेक्षा का शिकार होना पड़ता है। ऐसे में उस स्थिति का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है, जिसमें बहुस्तरीय मुश्किलों से जूझते बुजुर्ग स्मृतिलोप या मतिभ्रम का भी शिकार होंगे तो उनका जीवन कितना जटिल हो जाएगा। जरूरत है कि हम पारिवारिक जीवन में वृद्धों को सम्मान दें, इसके लिये सही दिशा में चले, सही सोचें, सही करें।

आज के आधुनिक परिवारों में एक सामान्य एवं स्वस्थ वृद्ध के प्रति जैसी उदासीनता एवं संवेदनहीनता देखने को मिलती है, वृद्धावस्था को बोझ की तरह देखने वाले परिवार इस स्मृतिलोप की समस्या से घिर जाने वाले अपने ही बुजुर्ग सदस्य के प्रति कैसा व्यवहार करेंगे, सोचकर ही सिहरन होती है। जबकि परिवार या उसके सदस्यों का सकारात्मक और संवेदनशील रवैया स्मृतिलोप की मुश्किल से घिरे किसी वृद्ध व्यक्ति के भीतर जीवन का संचार कर दे सकता है। मगर व्यवहार के स्तर पर संवेदनशीलता या फिर प्रशिक्षण के अभाव की व्यापक सामाजिक समस्या की वजह से बुजुर्गों का जीवन अपने आखिरी दौर में और ज्यादा मुश्किल हो जाता है। हकीकत तो यह है कि वर्तमान पीढ़ी अपने आप में इतनी मस्त-व्यस्त है कि उसे वृद्धों की ओर ध्यान केन्द्रित करने की फुरसत ही नहीं है। आज परिवार के वृद्धों से कोई वार्तालाप करना, उनकी भावनाओं की कद्र करना, उनकी सुनना, कोई पसन्द ही नहीं करता है. जब वे उच्छृखल, उन्मुक्त, स्वछंद, आधुनिक व प्रगतिशील युवाओं को दिशा-निर्देशित करते हैं, टोकते हैं तो प्रत्युत्तर में उन्हें अवमानना, लताड़ और कटु शब्द भी सुनने पड़ जाते हैं।

जटिल से जटिलतर होते वृद्धावस्था में स्मृतिलोप की समस्या से घिरे बुजुर्ग का जीवन नारकीय होने वाला है। वे अपने ही लोगों के बीच उपहास का पात्र बनेंगे। क्योंकि स्मृतिलोप से ग्रस्त बुजुर्गों में भूलने की समस्या पैदा हो जाती है। इससे गंभीर रूप से परेशान वृद्ध के लिए सामने खड़े व्यक्ति को पहचान पाना, दवा में भूल करना, किसी चीज को याद रखना भी मुश्किल हो जाता है। लेकिन जिन परिवारों में बुजुर्गों के प्रति पर्याप्त सम्मान, दर्द, प्यार और संवेदनशीलता बरत पाने वाले लोग होते हैं, उनमें ज्यादा उम्र की अशक्तता के बावजूद किसी वृद्ध व्यक्ति की शारीरिक और मानसिक सेहत बेहतर रहती है। कई बार देखभाल और संवेदना के अभाव से उपजी निराशा और पीड़ा बुजुर्गों को असमय ही कई मनोवैज्ञानिक समस्याओं के दुश्चक्र में डाल देती है। वृद्ध समाज कुंठित एवं उपेक्षित है। अपने को समाज में एक तरह से निष्प्रयोज्य समझे जाने के कारण वह सर्वाधिक दुःखी रहता है। वृद्ध समाज को स्मृतिलोप के दुःख और संत्रास से छुटकारा दिलाने के लिये ठोस प्रयास किये जाने की बहुत आवश्यकता है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी देश में बुजुर्गों के प्रति हो रहे दुर्व्यवहार और अन्याय को समाप्त करने के लिए और लोगों में जागरूकता फैलाने के लिए प्रयासरत है और वृद्ध कल्याण एवं सुखी जीवन-निर्वाह की योजनाएं लागू कर रहे हैं।

यह सच्चाई है कि एक पेड़ जितना ज्यादा बड़ा होता है, वह उतना ही अधिक झुका हुआ होता है यानि वह उतना ही विनम्र और दूसरों को फल देने वाला होता है, यही बात समाज के उस वर्ग के साथ भी लागू होती है, जिसे आज की तथाकथित युवा तथा उच्च शिक्षा प्राप्त पीढ़ी बूढ़ा कहकर वृद्धाश्रम में छोड़ देती है। जबकि ऐसे बुजुर्गों के शरीर की सीमा और क्षमता का ध्यान रखते हुए उन्हें हर तरह से आश्वस्त करना एक अनिवार्य मानवीय पहलू है। सच यह भी है कि स्मृति लोप जैसी समस्या के स्रोतों की पहचान, बेहतर खानपान के साथ-साथ शरीर और मन-मस्तिष्क की सक्रियता या व्यायाम आदि के सहारे वृद्धों को स्वस्थ जीवन देने का प्रयास होना चाहिए। अगर ऐसी स्थितियां निर्मित की जाएं, जिसमें बुजुर्गों की रोजमर्रा की जिंदगी को खुश और सेहतमंद बनाए रखने के इंतजाम हों, तो उन्हें न केवल स्मृतिलोप जैसी कठिनाइयों से बचाया जा सकेगा, बल्कि उनके लंबे जीवन-अनुभवों का लाभ भी समाज और देश को मिल सकेगा।


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