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जितेन्द्र सिन्हा का कॉलम : विवाह के लिए कन्याओं को मां कात्यायनी की उपासना करना चाहिए 

By: Dilip Kumar
10/20/2023 6:01:52 PM

चैत्र नवरात्रि और शारदीय नवरात्रि के रूप में नवरात्रि वर्ष में दो बार मनाई जाती है। शारदीय नवरात्रि सतयुग में शुरू हुई थी और आज भी इसे उतनी ही श्रद्धा और विश्वास के साथ मनाया जाता है। भक्त अपनी इच्छानुसार मां दुर्गा का 9 दिन का व्रत रखते हैं। नवरात्रि पर मां दुर्गा के नौ स्वरूपों की अलग-अलग दिन पूजा होती हैं। मां दुर्गा शक्ति स्वरूपा है और इस व्रत को करने वाले को भी शक्ति की प्राप्ति होती है। शारदीय नवरात्रि का पांच पूजा में मां शैलपुत्री, मां ब्रह्मचारिणी, मां चंद्रघंटा, मां कुष्मांडा और मां स्कंदमाता की आराधना हो चुकी है। अब छठे दिन मां कात्यायनी की पूजा - आराधना होगी।

मां कात्यायनी की उत्पत्ति या प्राकट्य के बारे में वामन और स्कंद पुराण में अलग-अलग बातें बताई गई है। मां कात्यायनी देवी दुर्गा का ही छठा रूप है। स्कंद पुराण में कहा गया है कि मां कात्यायनी की उत्पत्ति परमेश्वर के नैसर्गिक क्रोध से हुई थी। वहीं वामन पुराण के अनुसार सभी देवताओं ने अपनी ऊर्जा को बाहर निकालकर कात्यायन ऋषि के आश्रम में इकट्ठा किया और कात्यायन ऋषि ने उस शक्तिपुंज को एक देवी का रूप दिया जो देवी पार्वती द्वारा दिए गए सिंह (शेर) पर विराजमान थी। चूकि कात्यायन ऋषि ने देवी का रूप दिया था इसलिए देवी मां कात्यायनी कहलाई और मां कात्यायनी ने ही महिषासुर का वध की। कालिका पुराण जैसे ग्रंथों में अन्यत्र, यह उल्लेख किया गया है कि ऋषि कात्यायन ने सबसे पहले उनकी पूजा की थी, इसलिए उन्हें कात्यायनी के नाम से जाना जाने लगा । किसी भी स्थिति में, वह दुर्गा का एक प्रदर्शन या स्वरूप है और उसकी पूजा नवरात्रि उत्सव के छठे दिन की जाती है ।

संस्कृत में देवी महात्म्य, शक्तिवाद का केंद्रीय पाठ, दिनांक 11 ई.पू. वामन पुराण में उनकी रचना की कथा का विस्तार से उल्लेख किया गया है: "जब देवताओं ने अपने संकट में विष्णु की खोज की, तो उन्होंने और उनके आदेश पर शिव, ब्रह्मा और अन्य देवताओं ने अपनी आंखों और चेहरे से ऐसी ज्वालाएं निकाली कि चमक का एक पहाड़ बन गया। जिससे मां कात्यायिनी प्रकट हुई, हजारों सूर्यों के समान देदीप्यमान, तीन आंखें, काले बाल और अठारह भुजाएं। शिव ने उन्हें अपना त्रिशूल, विष्णु ने सुदर्शन चक्र या चक्र, वरुण ने एक शंख, अग्नि ने एक तीर, वायु एक धनुष, सूर्य एक तीरों से भरा तरकश, इंद्र एक वज्र , कुवेर एक गदा , ब्रह्मा एक माला और जल-पात्र, कला एक ढाल और तलवार, विश्वकर्मा एक युद्ध-कुल्हाड़ी और अन्य हथियार। इस प्रकार देवताओं द्वारा सशस्त्र और सम्मानित किया गया।

मां कात्यायनी मैसूर की पहाड़ियों की ओर बढ़ीं। वहां, असुरों ने उन्हें देखा और उनकी सुंदरता से मोहित हो गए, उन्होंने अपने राजा महिषासुर से उनका इतना वर्णन किया कि वह उन्हें पाने के लिए उत्सुक हो गए। कात्यायनी ने उनसे हाथ मांगा, तो उन्होंने कहा कि उन्हें जीतना ही होगा। लड़ाई में। उसने महिष, बैल का रूप धारण किया और युद्ध किया। अंत में मां दुर्गा अपने सिंह से उतरी और महिष की पीठ पर चढ़ गई, जो एक बैल के रूप में था और अपने कोमल पैरों से उसके सिर पर इतनी भयानक ताकत से प्रहार किया कि वह बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ा। फिर उसने अपनी तलवार से उसका सिर काट दिया और तब से उसे महिषासुर का वध करने वाली महिषासुरमर्दिनी कहा जाने लगा। इस कथा का उल्लेख वराह पुराण और शक्तिवाद के शास्त्रीय पाठ , देवी-भागवत पुराण में भी मिलता है।

स्कंद पुराण का एक अन्य संस्करण है, जहां कात्यायनी दो भुजाओं वाली देवी के रूप में प्रकट होती हैं और बाद में 12 भुजाओं वाली देवी के रूप में विस्तारित होती हैं। कार्तिकेय के तेज के कारण ही इनका यह नाम पड़ा। इस संस्करण में पार्वती अपना शेर उपहार में देती हैं। कात्यायनी द्वारा महिष को क्षमा करने का यह अनूठा संस्करण है

अमरकोष में पार्वती को ही कात्यायनी कहा गया है, संस्कृत शब्दकोश में उमा, कात्यायनी, गौरी, काली, हेेमवती एवम ईश्वरी कहा गया है। शक्तिवाद में उन्हें शक्ति या दुर्गा, जिसमे भद्रकाली और चंडिका भी शामिल है, में भी प्रचलित के हैं। स्कन्द पुराण में उल्लेख है कि मां कात्यायनी परमेश्वर के नैसर्गिक क्रोध से उत्पन्न हुई थीं, जिन्होंने देवी पार्वती द्वारा दी गई सिंह पर आरूढ़ होकर महिषासुर का वध किया। मां कात्यायनी शक्ति की आदि रूपा है, जिसका उल्लेख पाणिनि पर पतञ्जलि के महाभाष्य में किया गया है, जो दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व में रचित है। उनका वर्णन देवी भागवत पुराण, और मार्कंडेय ऋषि द्वारा रचित मार्कंडेय पुराण के देवी महात्म्य में किया गया है, जिसे ४०० से ५०० ईसा में लिपिबद्ध किया गया था।

बौद्ध और जैन ग्रंथों और कई तांत्रिक ग्रंथों, विशेष रूप से कालिका पुराण (१० वीं शताब्दी) में उनका उल्लेख है, जिसमें उद्यान या उड़ीसा में देवी कात्यायनी और भगवान जगन्नाथ का स्थान बताया गया है। परम्परागत रूप से देवी दुर्गा की तरह वे लाल रंग से जुड़ी हुई हैं। नवरात्रि उत्सव के षष्ठी को मां कात्यायनी की पूजा की जाती है। उस दिन साधक का मन 'आज्ञा चक्र' में स्थित होता है। योग साधना में इस आज्ञा चक्र का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। इस चक्र में स्थित मन वाला साधक मां कात्यायनी के चरणों में अपना सर्वस्व निवेदित कर देता है। परिपूर्ण आत्मदान करने वाले ऐसे भक्तों को सहज भाव से मां कात्यायनी के दर्शन प्राप्त हो जाते हैं

ऐसी भी कथा मिलती है कि ये महर्षि कात्यायन के यहां पुत्री रूप में मां कात्यायनी उत्पन्न हुई थी। आश्विन कृष्ण चतुर्दशी को जन्म लेकर शुक्त सप्तमी, अष्टमी तथा नवमी तक तीन दिन कात्यायन ऋषि की पूजा ग्रहण कर दशमी को महिषासुर का वध किया था। मां कात्यायनी अमोघ फलदायिनी हैं। भगवान कृष्ण को पति रूप में पाने के लिए ब्रज की गोपियों ने इन्हीं की पूजा कालन्दी- यमुना के तट पर की थी। ये ब्रजमंडल की अधिष्ठात्री देवी के रूप में प्रतिष्ठित हैं। मां कात्यायनी का स्वरूप अत्यंत चमकीला और भास्वर है। इनकी चार भुजाएं हैं। मां कात्यायनी का दाहिनी तरफ का ऊपर वाला हाथ अभय मुद्रा में तथा नीचे वाला वर मुद्रा में है। बाईं तरफ के ऊपर वाले हाथ में तलवार और नीचे वाले हाथ में कमल-पुष्प सुशोभित है। इनका वाहन सिंह है।

मां कात्यायनी की भक्ति और उपासना द्वारा मनुष्य को बड़ी सरलता से अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष चारों फलों की प्राप्ति हो जाती है। वह इस लोक में स्थित रहकर भी अलौकिक तेज और प्रभाव से युक्त हो जाता है। मां कात्यायनी को जो सच्चे मन से याद करता है उसके रोग, शोक, संताप, भय आदि सर्वथा विनष्ट हो जाते हैं। जन्म-जन्मांतर के पापों को विनष्ट करने के लिए मां कात्यायनी की शरणागत होकर उनकी पूजा-उपासना के लिए तत्पर होना चाहिए। मां कात्यायनी की उपासना से अद्भुत शक्ति का संचार होता है और दुश्मनों का संहार करने में ये सक्षम बनाती हैं। इनका ध्यान गोधुली बेला में करना होता है। जिन कन्याओं की विवाह में विलम्ब होता है, वे कन्या नवरात्रि में मां कात्यायनी की उपासना करती है तो उसे मनोवान्छित वर की प्राप्ति होती है।

विवाह के लिए मां कात्यायनी का मंत्र है-

ॐ कात्यायनी महामाये महायोगिन्यधीश्वरि ।

नंदगोपसुतम् देवि पतिम् मे कुरुते नम:॥

मां कात्यायनी का मंत्र

या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥


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