पुस्तक समीक्षा : भारत में दलित समाज दशा दिशा और चुनौतियां 

By: Dilip Kumar
5/28/2022 2:54:50 AM

भारत में दलित समाज दशा दिशा और चुनौतियां शीर्षक से दिनांक 16 मई ,20 22 में पुस्तक विमोचन पुलिस ऑफिसर श्रीनिवास यादव, डॉ मोतीलाल, पवन कुमार, सतीश कुमार आदि के श्री कर कमलों के द्वारा किया गया, जिसके लेखक प्रो सत्य प्रकाश ( प्राचार्य, डॉक्टर बी आर अंबेडकर जन्म शताब्दी महाविद्यालय धनसारी अलीगढ़) ने स्वतंत्र देश के आधुनिक युग के दलित समाज पर अपनी लेखनी को गति देकर आत्मवृत्त के रूप में पुस्तक विमोचन कराते हुए दलित व दमित समाज की भावनाओं को निसृत करने का सफल प्रयास किया है। क्योंकि वर्तमान काल भविष्य की विभिन्न मानव योजनाओं को क्रियान्वित कर रहा है, जिसमें शिक्षा का स्थान प्रथम बिंदु पर देखा जाता है। जिसमें पुस्तक ही समाज का परिवर्तनकारी अस्त्र-शस्त्र है, जिसके उपयोग किए जाने पर बड़े स्तर पर क्रांतिकारी परिवर्तन देखा जा सकता है। पुस्तक ही आदर्श समाज निर्माण की बहुमूल्य निधि है, जिसमें लेखक द्वारा निरूपित स्वर्ण अक्षरों को संग्रहित कर समाज ही नहीं ज्ञानपुंज को प्रज्वलित करती है।

लेखक ने विमोचित पुस्तक के माध्यम से कहना चाहा है, कि हर धर्म अपने साथ अपना ईश्वर, अपनी एक विशिष्ट पूजा पद्धति, पूजा स्थल, पवित्र किताब और कभी-कभी पवित्र शहर भी लेकर आता है। जैसे वेटिकन, मक्का, मदीना, रोम आदि इसी फेहरिस्त में कुछ ऐसे शहर भी आते हैं, जो कई धर्मों के लिए समान रूप से पूजनीय होते हैं, वहीं बनारस भी हिंदू, जैन और बौद्ध जैसे प्रमुख धर्मों और अनेक मतों एवं संप्रदायों का पवित्र स्थल है। बनारस का प्राचीन नाम काशी था। विभिन्न ग्रंथों में इसे आनंदवन, अविमुक्त क्षेत्र, आनंद कानन, वाराणसी आदि नामों से भी उल्लेखित किया गया। वाराणसी इसी का आधिकारिक नाम है। यह भारत का सबसे प्राचीन जीवित नगर है, इस शहर का प्रथम उल्लेख ऋग्वेद से मिलना शुरू होता है, और फिर भारतीय इतिहास के हर दौर में मिलता जाता है। जिसमें कभी यह शिक्षा का केंद्र होता है, तो कभी व्यापार का कभी स्वतंत्रता आंदोलन का और मौजूद समय में देश की राजनीति का भी।

इन समस्त तथ्यों का अवलोकन करने के उपरांत लेखक ने अपनी ऐतिहासिक दृष्टि का प्रयोग दलित समाज के विभिन्न पक्षों को बनारस के मध्य जीवन यापन करने वाले शोषित व दलित समाज के उत्थान हेतु पुरजोर रूप से उल्लिखित करने का प्रयास किया है। जिस नगर में कबीर दास जैसे समाज सुधारक और रामानंद जैसे धर्माचार्य और सनातन धर्म के संस्थापक, प्रमुख प्रचारक का निवास रहा है, मानवता का पाठ वाचन करने वाले कर्मशील प्राणी रैदास समाज की यथार्थ परक जीवन का अध्ययन करते हुए, लेखक ने अनुभव किया और बनारस की दलितों के बीच खड़े होकर भारतीय सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक ,सांस्कृतिक और राजनैतिक व्यवस्थाओं में दलित वर्ग की दशा को दर्शाया है, जो दशा स्वतंत्रता पूर्व थी, कमोवेश स्वतंत्रता के बाद भी बनी हुई है। इसीलिए आज संवैधानिक व्यवस्था के आधार पर यदि दलित वर्ग की भागीदारी सुनिश्चित की होती, तो शायद आज यह वर्ग निम्न समस्याओं से न जूझ रहा होता, मानसिक शोषण , प्रताड़ना, अस्पृश्यता, निर्धनता, अशिक्षा, आवास हीनता आदि। 1947 से पूर्व दलित समाज अपने लिए नहीं उच्च वर्ग के लिए जीवन जीता था, उसे अपने तन को उच्च वर्ग की सेवा हेतु संरक्षित कर गुलामी भरे जीवन के साथ समाप्त कर देता उसे खाने का, पहनने का, शिक्षा प्राप्त करने का यहां तक कि अपनी बात और विचार रखने का अधिकार तक भी नहीं था। धर्म से अछूता रहा, कर्म से हीन माने जाने वाला दलित हमेशा हर द्वारे पर एक कुत्ते से भी गया व्यवहार के साथ दुत्कार आ गया।

आज भी यह वर्ग भले ही स्वतंत्र भारत का समान नागरिक होने का पहचान पत्र प्राप्त किए है, किंतु मानसिक रूप से आज भी प्रताड़ित वर्ग बना हुआ है, वह किसी ना किसी रूप में सर्वहारा वर्ग का शिकार बना हुआ है। भले ही दलित वर्ग का अधिकारी अपने को अपनी योग्यता के बल पर उच्च स्थान प्राप्त किए हुए हो, फिर भी उसे उच्च या सर्वहारा वर्ग की प्रताड़ना उसे किसी न किसी रूप में अवश्य झेलनी पड़ रही है। यह कटु सत्य है जब तक जातियां रहेंगी तब तक दलित गुलामी का शिकार होते रहेंगे लेखक ने संत रविदास जी की इन पंक्तियों के माध्यम से कहना चाहा है जात जात में जात है, जो केलन में पात। रविदास मानुष जुड़ न सके, जोन लौ जात न जात।। मानवता का प्रादुर्भाव तब तक नहीं होगा जब तक मनुष्य मनुष्य के मध्यम वैमनस्यता देखी जाएगी अर्थात जब तक यह जातियां खत्म नहीं हो जाती इस जातिवाद का खंडन नहीं होगा। साहित्यिक दृष्टि से भक्ति काल से अर्थात चौदहवीं शताब्दी से ही देखा जाता है, जिसमें सगुण भक्ति धारा के राम भक्त शाखा के प्रतिनिधि कवि एवं भक्त शिरोमणि कहे जाने वाले तुलसीदास ने भी भेद की दृष्टि रखते हुए कहा पूजहि विप्र ज्ञान गुण हीना, शूद्र ना पूजेहि निपुण प्रवीणा। ब्राह्मण तो अज्ञानी व अशिक्षित पूजनीय है, किंतु शूद्र कितना भी बड़ा ज्ञानी व विदुत्ता रखने वाला हो वह भी पूजनीय तो दूर सम्मान का पात्र नहीं बन सकता। भारत भले ही विभिन्न संस्कृतियों की पहचान लिए हुए अनेकता में एकता की बात करता है। किंतु आदर्श मानव धर्म का निर्माण करने के लिए विशेष अनुष्ठान या यज्ञ में वर्ग भेद का आहूत करने की आवश्यकता है, तभी एक सभ्य एवं वर्ग हीन समाज की स्थापना कर सकेंगे, जो वर्तमान समय की मांग है।

अतः प्रथम दृष्टा आदर्श समाज मानव धर्म की स्थापना समानता का भाव विश्व बंधुता की स्थापना तभी संभव है जब हर समाज के प्रत्येक प्राणी को समान भाव और सच्चे मन के साथ स्वीकार किया जाए प्रत्येक समाज की पहचान धर्म विशेष के साथ ना होकर मानव धर्म से जुड़ी होना अपरिहार्य है, यह प्रयास लेखक ने विमोचित पुस्तक भारत में दलित समाज, दशा दिशा और चुनौतियां मैं बड़े सहज और सरलता के साथ समय की मांग के अनुरूप नए आदर्श समाज, समता भाव की प्रतिष्ठापना करने का सफलतापूर्वक आग्रह किया है। इस प्रकार यह पुस्तक समय की मांग के अनुरूप दलित समाज के आदर्श रूप के लिए मील का पत्थर बन सके, ऐसी पाठकों से मैं कामना करता हूं।

डॉक्टर मोतीलाल
प्रवक्ता हिंदी,
डॉक्टर भीमराव अंबेडकर जन्मशताब्दी महाविद्यालय, धनसारी, अलीगढ़ ।


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