शैलेंद्र मौर्या@भाजपा के ‘हार्ट लैंड’ कहलाने वाले राज्यों- राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ को जनता ने कांग्रेस के हवाले कर दिया। राजस्थान में तो हर पांच साल में सत्ता बदलने की राजनीति चलती रही है, लेकिन मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में 15 साल से पैर जमा चुकी भाजपा को उखाड़ना कोई मामूली बात नहीं थी, लेकिन ऐसा हुआ। क्यों और कैसे हुआ, यह सब तरह तरह के विश्लेषण के विषय हैं। इस पर मंथन चलता रहेगा। लेकिन, इस चुनाव परिणाम ने एक बात साफ कर दिया है कि अब मोदी का जादू नहीं रहा। उनकी विश्वसनीयता पहले वाली नहीं रही, उनके बोल अब कांटों की तरह चुभने लगे हैं। लोग आजिज़ आकर उन्हें भी ‘फेंकू’ और ‘गप्पू’ कहने से बाज नहीं आते। तो सच यही है कि लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा की विस्तारवादी राजनीति थम-सी गई। तीन राज्यों में उनकी सरकार गई और दो राज्यों में उनका कोई अस्तित्व नहीं रहा। उनकी विस्तारवादी राजनीति नाकाम हुई। भाजपा की यही नाकामी बहुत कुछ कह जाती है और फिर यही पर लोकतंत्र की ताकत का एहसास होने लगता है।
जनता से बढ़कर कोई नहीं और जनता ही है सबका बाप। भाजपा और उसके नेताओं ने जनता का ‘बाप’ बनने का ख्वाब देखा था,लेकिन खेल फीके पड़ गए। भाजपा का दर्प चकनाचूर हो गया। मंदिर, हिंदू की राजनीति ध्वस्त हो गई। लेकिन, इन सबके बीच जो नई राजनीति सामने आ रही है, वह कांग्रेस की ही राजनीति है। एक समय मैदान से लगभग आउट हो चुकी कांग्रेस दम-खम के साथ उभरती दिख रही है और उसका यह उभार अब हिंदी पट्टी में उसका दबदबा बढ़ाने के लिए काफी है। एक आंकड़ा सामने है, जिसे देखना जरूरी है। संपन्न हुए पांच विधानसभा में सीटों की संख्या598 है। 2013 में कांग्रेस के पास सिर्फ 117 सीटें ही थीं, जबकि भाजपा के पास 327 सीटें थीं। अब 2018 के इस चुनाव के बाद भाजपा 200 सीटों पर ठहर गई है, जबकि कांग्रेस के पास305 सीटें हो गई हैं। भाजपा को 127 सीटों का नुकसान हुआ है, तो कांग्रेस को 132 सीटों का लाभ। यह कोई मामूली खेल नहीं है। आगामी लोकसभा चुनाव में इसका बड़ा इफेक्ट पड़ने वाला है, इससे इनकार करना मुश्किल होगा।
अब इन चुनाव नतीजों का एक परिणाम यह भी होगा कि हिंदी पट्टी में कांग्रेस का दबदबा बढ़ेगा। प्रादेशिक-इलाकाई राजनीतिक दलों की धौंस-पट्टी अब वह नहीं भी सुन सकती है। बिहार, यूपी में वह अधिक सीटें चाहेगी। यदि 1980 की तरह उसने स्वतंत्र स्तर पर लड़ने का फैसला कर लिया, तब यूपी में समाजवादी पार्टी और बिहार में राष्ट्रीय जनता दल के लिए मुश्किलें पैदा हो सकती हैं। आज की राजनीतिक स्थिति में दलित और मुसलमान कांग्रेस की तरफ खिंच सकते हैं। यदि यह हुआ, तो सवर्ण मतदाता भी भाजपा छोड़ कांग्रेस की तरफ आ सकते हैं। ऐसी स्थिति में फिर पुरानी स्थितियां आ सकती हैं। और, तब भाजपा और क्षेत्रीय पार्टियां किनारे लग जाएंगी। ऐसे भाजपा की परेशानी तो बढ़ेगी ही, कई क्षेत्रीय दल भी परेशान होंगे। कई पार्टियां वोट के अभाव में इधर-उधर भटकेंगी, तो कई एक-दूसरे में समाहित होती दिखेंगी।
कांग्रेस ने जिस प्रकार से अपनी पैठ बनानी शुरु की है इससे यह तो तय हो गया है कि अब उसे महागठबंधन में जाने की जरूरत नहीं है। बल्कि चाहे तो यूपीए में राजनीति दलों को लाकर चुनाव मैदान में उतरे। इस विषय पर कांग्रेस नेता अखिलेश दास ने कहा कि कांग्रेस सबको लेकर चलने में विश्वास करती है। आज के समय में महागठबंधन प्रासंगिक हो गया है। उन्होंने कहा कि यूपीए पहले से ज्यादा मजबूत है और यह रहेगा। लेकिन जरूरत आज महागठबंधन की है। यह सारा निर्णय राहुल गांधी खुद करेंगे। जनता उनमें विश्वास करती है जिसका परिणाम आपको विधानसभा चुनाव में दिखा है। बहरहाल जिस प्रकार से कांग्रेस वापसी की है उससे यह तो तय हो गया है कि अब वह फिर से देश को नेतृत्व देने को तैयार है। चाहे महागठबंधन के साथ हो या यूपीए का विस्तार। दोनों ही फारमेट में कांग्रेस ही बाजी मारती दिख रही है।
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