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शैक्षणिक स्वतंत्रता, संवेदनशीलता और आस्था का सम्मान

By: Dilip Kumar
12/16/2025 5:54:19 PM

हाल ही में हैदराबाद के शमीरपेट स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक एंटरप्राइज (IPE) में एक सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी द्वारा कक्षा के दौरान हिंदू देवी-देवताओं पर कथित आपत्तिजनक टिप्पणी किए जाने का मामला एक बार फिर देश में शैक्षणिक परिसरों के भीतर धार्मिक आस्थाओं के सम्मान, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और अकादमिक मर्यादाओं के बीच संतुलन पर गंभीर प्रश्न खड़े करता है। यह कोई पहला मामला नहीं है। समय-समय पर देश के प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों—चाहे वे केंद्रीय विश्वविद्यालय हों, आईआईटी जैसे तकनीकी संस्थान हों या प्रबंधन शिक्षण संस्थान—से ऐसे प्रसंग सामने आते रहे हैं, जहाँ पढ़ाई के नाम पर छात्रों की आस्था को ठेस पहुँचाने वाली टिप्पणियाँ की गईं।

यह प्रश्न केवल एक व्यक्ति या एक संस्थान तक सीमित नहीं है, बल्कि यह पूरे शैक्षणिक तंत्र की उस मानसिकता की ओर इशारा करता है, जिसमें “बौद्धिकता” और “प्रगतिशीलता” के नाम पर धार्मिक विश्वासों का उपहास करना स्वीकार्य मान लिया गया है। क्या सचमुच आधुनिक शिक्षा का अर्थ यही है कि किसी समुदाय की आस्था को तर्कहीन, पिछड़ा या हास्यास्पद सिद्ध किया जाए?

अकादमिक स्वतंत्रता बनाम अकादमिक जिम्मेदारी

शिक्षण संस्थानों में अकादमिक स्वतंत्रता एक महत्वपूर्ण मूल्य है। शिक्षक को विचार रखने, प्रश्न उठाने और छात्रों को आलोचनात्मक सोच सिखाने का अधिकार है। लेकिन यह स्वतंत्रता निरंकुश नहीं हो सकती। जिस प्रकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ उत्तरदायित्व जुड़ा होता है, उसी प्रकार अकादमिक स्वतंत्रता के साथ अकादमिक मर्यादा और सामाजिक संवेदनशीलता भी अनिवार्य है।

यदि कोई प्रोफेसर मैक्रोइकोनॉमिक्स पढ़ाने के लिए कक्षा में आमंत्रित किया गया है, तो उससे अपेक्षा यही है कि वह विषय से जुड़े सिद्धांतों, नीतियों और आर्थिक विश्लेषण पर चर्चा करे। धर्म, आस्था या पूजा-पद्धति पर निजी राय थोपना न तो पाठ्यक्रम का हिस्सा है और न ही छात्रों के बौद्धिक विकास के लिए आवश्यक। खासकर तब, जब वह राय अपमानजनक या व्यंग्यात्मक भाषा में दी जाए।

आस्था का उपहास: एकतरफा प्रवृत्ति?

यह भी एक कड़वा सच है कि इस प्रकार की टिप्पणियाँ प्रायः हिंदू धर्म और उसकी परंपराओं को लेकर ही देखने को मिलती हैं। बहुत कम उदाहरण मिलेंगे जहाँ किसी शैक्षणिक मंच से अन्य धर्मों के प्रतीकों या मान्यताओं का इसी तरह सार्वजनिक उपहास किया गया हो। यह चयनात्मक “तर्कवाद” और “आलोचना” संदेह पैदा करती है कि कहीं यह बौद्धिक विमर्श के बजाय वैचारिक पूर्वाग्रह तो नहीं।

एक आर्य समाज की महिला द्वारा साझा किया गया अनुभव—कि दिल्ली के आईआईटी जैसे प्रतिष्ठित संस्थान में भी उनकी बेटी ने ऐसे ही व्याख्यान सुने—इस बात की पुष्टि करता है कि समस्या गहरी और व्यापक है। जब देश के सर्वोच्च शैक्षणिक संस्थानों में पढ़ने वाले छात्र भी ऐसी स्थितियों से गुजर रहे हैं, तो यह केवल व्यक्तिगत आहत भावनाओं का नहीं, बल्कि संस्थागत संस्कृति का प्रश्न बन जाता है।

छात्र और शिक्षक के बीच असमान शक्ति-संबंध

शिक्षक और छात्र के संबंध में स्वाभाविक रूप से एक शक्ति-संतुलन की असमानता होती है। छात्र प्रायः शिक्षक के सामने खुलकर विरोध करने में संकोच करता है—उसे अंक, मूल्यांकन या भविष्य की सिफारिशों का डर रहता है। ऐसे में यदि कोई शिक्षक अपनी वैचारिक मान्यताओं को आक्रामक ढंग से प्रस्तुत करता है, तो छात्र के पास सहने के अलावा बहुत कम विकल्प बचते हैं। यही कारण है कि इस तरह की घटनाओं को “सामान्य बहस” कहकर टालना खतरनाक है। यह मानसिक उत्पीड़न का रूप भी ले सकती हैं, जहाँ छात्र खुद को अपमानित, असुरक्षित और अलग-थलग महसूस करता है।

कानून का हस्तक्षेप: आवश्यक लेकिन अंतिम उपाय

इस मामले में पुलिस द्वारा एफआईआर दर्ज किया जाना यह दर्शाता है कि अब समाज ऐसे कृत्यों को हल्के में लेने के मूड में नहीं है। भारतीय न्याय संहिता के प्रावधान यह स्पष्ट करते हैं कि धार्मिक भावनाओं को जानबूझकर आहत करना केवल नैतिक नहीं, बल्कि कानूनी अपराध भी है। हालाँकि, आदर्श स्थिति यह होगी कि मामलों को अदालत तक पहुँचने से पहले ही संस्थागत स्तर पर सुलझाया जाए। कॉलेज और विश्वविद्यालय प्रबंधन की जिम्मेदारी है कि वे अतिथि या स्थायी फैकल्टी के लिए स्पष्ट आचार-संहिता तय करें और यह सुनिश्चित करें कि कक्षा का उपयोग किसी भी प्रकार के धार्मिक, राजनीतिक या वैचारिक प्रचार के लिए न हो।

समाधान की दिशा में

इस समस्या के समाधान के लिए बहुस्तरीय प्रयास आवश्यक हैं:

स्पष्ट अकादमिक दिशानिर्देश: संस्थानों को यह स्पष्ट करना चाहिए कि पाठ्यक्रम से असंबंधित और धार्मिक रूप से संवेदनशील विषयों पर टिप्पणी अस्वीकार्य है।

शिकायत निवारण तंत्र: छात्रों के लिए सुरक्षित, गोपनीय और प्रभावी शिकायत प्रणाली हो, जहाँ वे बिना भय के अपनी बात रख सकें।

संवेदनशीलता प्रशिक्षण: फैकल्टी—विशेषकर अतिथि वक्ताओं—के लिए सांस्कृतिक और धार्मिक संवेदनशीलता पर ओरिएंटेशन अनिवार्य किया जाए।

संवाद की संस्कृति: आलोचनात्मक सोच का अर्थ उपहास नहीं, बल्कि सम्मानजनक संवाद होना चाहिए—यह बात छात्रों और शिक्षकों दोनों को समझाई जानी चाहिए।

भारत विविधताओं का देश है, जहाँ आस्था केवल निजी विश्वास नहीं, बल्कि सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान का हिस्सा है। शिक्षा का उद्देश्य इस विविधता को समझना, उसका सम्मान करना और समाज को जोड़ना होना चाहिए—न कि उसे विभाजित करना। यदि शैक्षणिक संस्थान ही असंवेदनशीलता के केंद्र बन जाएंगे, तो भविष्य की पीढ़ी से सहिष्णुता और सद्भाव की उम्मीद कैसे की जा सकती है? यह समय आत्ममंथन का है—शिक्षकों, संस्थानों और नीति-निर्माताओं सभी के लिए। अकादमिक उत्कृष्टता तभी सार्थक है, जब वह मानवीय गरिमा और पारस्परिक सम्मान के साथ आगे बढ़े।


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