भारतीय लोकतंत्र में न्यायपालिका सर्वोच्च संस्था मानी जाती है। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की किसी भी टिप्पणी को गंभीरता से देखा जाता है, क्योंकि उसका असर केवल कानून तक सीमित नहीं रहता, बल्कि समाज की संवेदनाओं और विश्वासों पर भी पड़ता है। हाल ही में भगवान विष्णु से जुड़ी टिप्पणी ने अनेक लोगों की आस्थाओं को छुआ है और कई मनों में प्रश्न उठाए हैं।
परंतु आश्चर्य की बात यह है कि सामान्यतः “सनातन धर्म” और “हिंदू आस्था” के नाम पर आवाज़ उठाने वाली राजनीतिक और धार्मिक संस्थाएँ इस विषय पर मौन हैं। चाहे वह सत्ताधारी दल हो, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठन हों, शंकराचार्य और अखाड़ों के प्रतिनिधि हों या फिर विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्री—सबकी चुप्पी अनेक संकेत छोड़ती है।
राजनीति और आस्था का समीकरण
आमतौर पर चुनावी समय में या सांस्कृतिक मुद्दों पर “सनातन” की रक्षा का उद्घोष जोर-शोर से होता है। किंतु जब मामला न्यायपालिका और आस्था के बीच टकराव की रेखा से जुड़ता है, तो वही स्वर धुंधले पड़ जाते हैं। क्या यह केवल राजनीति की सुविधा है? क्या यह भय है कि न्यायपालिका पर सीधे प्रश्न उठाने से टकराव की स्थिति बन सकती है? या फिर यह मान लिया गया है कि जनता की भावनाएँ समय के साथ स्वतः शांत हो जाएँगी?
धार्मिक संगठनों का मौन
इस्कॉन जैसे वैश्विक धार्मिक संगठनों से लेकर परंपरागत मठ-मंदिरों तक इस मुद्दे पर गहरी चुप्पी है। यह चुप्पी शायद इस सोच का परिणाम है कि विवाद को और न बढ़ाया जाए। किंतु भक्तों और अनुयायियों के मन में यह सवाल स्वाभाविक है कि जब भगवान और धर्मग्रंथों पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रश्न उठे, तो उनकी ओर से कोई स्पष्ट अभिव्यक्ति क्यों नहीं आती?
सोशल मीडिया की आवाज़
ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि जहाँ मुख्यधारा की राजनीति और बड़े धार्मिक संगठन चुप हैं, वहीं सोशल मीडिया पर आम लोग लगातार पोस्ट और टिप्पणियों के माध्यम से प्रतिक्रिया दे रहे हैं। कई उपयोगकर्ताओं ने इसे आस्था पर चोट माना और अपनी आपत्तियाँ दर्ज कीं। इस तरह समाज ने डिजिटल मंचों पर अपनी भावनाएँ व्यक्त कर, उस शून्य को भरने का प्रयास किया है, जो औपचारिक नेतृत्व की चुप्पी से पैदा हुआ।
समाज का कर्तव्य
लोकतंत्र में आस्था और न्यायपालिका—दोनों की अपनी गरिमा है। लेकिन जब दोनों के बीच कोई संवेदनशील प्रसंग सामने आता है, तो संवाद आवश्यक हो जाता है। यदि संस्थाएँ और नेतृत्व मौन रहते हैं, तो समाज स्वयं असमंजस की स्थिति में पड़ जाता है। इसलिए आवश्यक है कि इस विषय पर संतुलित, मर्यादित और तथ्यों पर आधारित विमर्श हो, ताकि न तो न्यायपालिका की गरिमा प्रभावित हो और न ही करोड़ों लोगों की आस्था को ठेस पहुँचे।
चुप्पी हमेशा समाधान नहीं होती। यदि किसी टिप्पणी ने समाज की भावनाओं को छुआ है, तो जिम्मेदार संस्थाओं को सम्मानजनक ढंग से अपना पक्ष रखना चाहिए। आस्था और न्यायपालिका दोनों ही भारत की आत्मा के अंग हैं—दोनों के बीच संतुलन बनाए रखना ही हमारी लोकतांत्रिक और सांस्कृतिक जिम्मेदारी है।
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