चिड़िया चुग गई सारा खेत

By: Devendra Gautam
6/15/2018 7:50:22 PM
Ranchi

 

देवेंद्र गौतम

कर्नाटक और उपचुनावों के बाद अब नरेंद्र मोदी एंड कंपनी को समझ में आ चुका है कि उनकी लोकप्रियता का ग्राफ नीचे आ चुका है और सत्ता के अहंकार में कुछ ऐसी गलतियां हुई हैं जिनके कारण जनता में आक्रोश है। 2019 नजदीक है और अब गलतियों को सुधारने का समय नहीं है। जो लोग विपक्षी एकता की संभावनाओं का मजाक उड़ाते थे और अब अपने गठबंधन को संभाल कर रखना ही उनके लिए बड़ी चुनौती बनता जा रहा है। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष और नरेंद्र मोदी के सबसे बड़े सिपहसलार अमित शाह को धरातल की सच्चाई समझ में आने लगी है। वे गठबंधन के साथियों को मनाने निकल पड़े हैं। अपनी मनावन यात्रा के पहले चरण में उन्होंने शिवसेना प्रमुख से मुलाकात की। उद्धव ठाकरे औपचारिकता वश उनसे गर्मजोशी से मिले लेकिन पार्टी के मुखपत्र सामना के संपादकीय में स्पष्ट संकेत दे दिया कि अब काफी विलंब हो चुका है। 2019 का चुनाव शिवसेना अपने बूते लड़ने का इरादा रखती है। शाह के दौरे से कोई अंतर नहीं पड़ने वाला है। चंद्रबाबू नायडू पहले ही एनडीए से किनारा कर चुके हैं। नीतीश कुमार के स्वर बदले हुए हैं। छोटे बड़े सभी सहयोगी पल्ला झाड़ने में लगे हैं।

दरअसल शुरुआती सफलताओं ने मोदी एंड कंपनी के अंदर इतना अहंकार भर दिया था कि वे सहयोगी दलों के प्रति उपेक्षात्मक रवैया अपनाते थे। वे इस कदर पेश आते थे जैसे उन्हें साथ रखकर उनपर बहुत बड़ा एहसान कर रहे हों। चुनाव हारने के बारे में तो वे सोच भी नहीं रहे थे। उन्हें मोदी के चमत्कार पर भरोसा था। वातानुकूलित कमरे में बैठकर आंकड़े गिनने में व्यस्त उनके सलाहकारों ने बतला दिया था कि निचले वर्ग के पास वोट हैं और कारपोरेट घरानों के पास पैसा। दोनों खुश रहें तो सत्ता पर पकड़ बनी रहेगी। इस तरह की सलाहों के कारण मध्यम वर्ग को गिनती से बाहर कर दिया गया और उसे परेशान रखने में कोई हर्ज नहीं पाया गया। इस सरकार ने आंकड़ों के इस चक्कर में मध्यम वर्ग का जीना हराम कर दिया। वे महंगाई का रोना रोते तो मोदी जी सलाह देते कि मध्यम वर्ग अपना बजट काबू में रखे। पढ़े लिखे युवकों को वे पकौड़ी बेचने की सलाह देकर उनका मजाक उड़ाते थे। निचले तबके को एक रुपये चावल देने से काम चल रहा था और एलिट क्लास के लिए महंगाई कोई मायने नहीं रखती थी। मोदी एंड कंपनी को यह कत्तई अहसास नहीं था कि देश का मिजाज मध्यम वर्ग ही तय करता है और उसकी रसोई पर हमला करके कोई सरकार टिकी नहीं रह सकती।

मोदी सरकार को सबसे ज्यादा नुकसान उनके भक्तों के कारण उठाना पड़ रहा है। वे सोशल मीडिया पर जिस भाषा में मोदी का गुणगान और विपक्ष की खिल्ली उड़ाते थे उससे लोगों का पारा आसमान छूने लगता था। भारत के लोग दुश्मन के साथ भी ओछी भाषा में बात करना पसंद नहीं करते। अपना व्यवहार शालीन रखते हैं। लेकिन भारतीय संस्कृति की बात करने वाले भक्त सेक्युलरिज्म को राजनीतिक गाली की तरह इस्तेमाल करते थे और सांप्रदायिकता को राष्ट्रधर्म के रूप में पेश करते थे। जो मोदी के भक्त नहीं वे पाकिस्तान और मुसलमानों के समर्थक करार दिए जाते थे। इससे लोगों के अंदर मोदी के प्रति चिढ़ उत्पन्न होती थी। हिन्दुत्व में गहरी आस्था रखने वाले लोग भी इस तरह की छिछोरी टिप्पणियों को पसंद नहीं करते थे। भले ही भक्तों की यह अराजक और उदंड टोली स्वयं पैदा हो गई हो लेकिन लोगों लगता था कि सोशल मीडिया में प्रचार के लिए पैसे देकर लोग नियुक्त किए गए हैं। मोदी एंड कंपनी को भी उनकी गतिविधियों पर कोई आपत्ति नहीं थी।

नरेंद्र मोदी पहले गैर कांग्रेसी नेता हैं जिनपर 2014 में देशवासियों को उम्मीदें जगीं और जिन्हें प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता सौंपी। मोदी को सरकार चलाने का हुनर दिखाने का सुनहरा अवसर मिला था। यदि वे जनता की आकांक्षाओं के अनुरूप काम करते, लोगों के जीवन को खुशहाल बनाने की दिशा में लगते तो लोग कांग्रेस को हमेशा के लिए भूल जाते। लेकिन व्यवस्था सुधार के नाम पर उन्होंने ऐसे-ऐसे फैसले किए कि लोग त्राहिमाम कर उठे। बिना कोई होमवर्क किए वे प्रयोग पर प्रयोग करते गए। जनता की जेब से पैसे निकलवा लिए लेकिन सरकार के राजस्व के साथ कोई समझौता नहीं किया। विश्व बाजार में पेट्रोलियम के दाम कम हुए तो भी उसकी कीमत नहीं घटाई ताकि ज्यादा से ज्यादा पैसा खजाने में आए। जीएसटी लागू किया तो पेट्रोलियम को उसके दायरे से दूर रखा। चूंकि बाजार में कीमतें काफी कुछ डीजल पेट्रोल पर निर्भर करती हैं अतः जीएसटी के बाद महंगाई और बढ़ गई। सरकार का खजाना तो भरा लेकिन जनता की जेब ढीली हुई। शुरुआत में न खाउंगा न खाने दूंगा के नारे से लोगों ने समझा कि बड़े ही त्यागी और साफ-सुथरे प्रधानमंत्री मिले हैं। लेकिन जब उनके महंगे कपड़ों का शौक, विदेश यात्राओं का खर्च और उनके फलाफल पर लोगों की निगाह गई तो धारणा बदलने लगी। इस बीच उनके भोजन का खर्च सामने आने के बाद लोगों को समझ में आने लगा कि वे गलतफहमी का शिकार थे। ये तो कोई फकीर नहीं बल्कि शाहों के शाह हैं। इतना महंगा भोजन तो कांग्रेसी भी नहीं करते थे। दरअसल प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठने वाले पर पूरे देश की नज़र रहती है। लोग उसके क्रियाकलापों की समीक्षा करते रहते हैं और चुनाव के समय उसी के अनुरूप अपना फैसला सुनाते हैं। इसीलिए धीरे-धीरे लोग उनके विकल्प पर विचार करने लगे। मोदी एंड कंपनी को लगा कि विकल्प तो है नहीं लोग थक हारकर भाजपा को ही वोट देंगे। सरकार तो उन्हीं की बनेगी। मोदी एंड कंपनी ने सिर्फ विपक्ष पर ही निशाना नहीं साधा। भाजपा के दिग्गज नेताओं को भी मार्गदर्शक मंडली में डालकर, किनारे लगाकर, उपेक्षा कर नाराज कर दिया। भाजपा के अंदर का मोदी विरोधी खेमा विपक्षी दलों से भी ज्यादा खार खाए हुए है।

कर्नाटक चुनाव में जब विपक्षी एकता की संभावनाएं नज़र आईं तो लोगों ने उसपर सहमति की मुहर लगा दी। इससे विपक्ष का मनोबल बढ़ा और एनडीए में दरार के लक्षण दिखाई देने लगे। अब उसकी लीपापोती के उपाय ढूंढे जा रहे हैं। राम मंदिर का बेसूरा राग फिर से अलापा जा रहा है। शाह का कहना है कि इसबार जीते तो राम मंदिर बनकर रहेगा। एक चेक को आखिर कितनी बार भुनाएगी भाजपा।

 


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