पटना से जितेन्द्र कुमार सिन्हा। बिहार की राजनीति पर आधारित हिन्दी उपन्यास 'वो कॉमरेड स्स्स्सा' किंडल डायरेक्ट पब्लिशिंग पर पाठकों की पसंद बन रहा है। 'वो कॉमरेड स्स्स्सा' तीन दशक से अधिक समय से वर्ग संघर्ष के नाम पर जातिवाद का नंगा नाच कर दर्जनों नरसंहारों में खून की नदियां बहाने वाले कॉमरेडों और सत्ता एवम राजनीति संरक्षित वीभत्स चेहरों की नकाब उतारती कहानी है। वरीय पत्रकार श्रवण कुमार ने 1990 से अभी तक के राजनीतिक घटनाक्रमों को मनोरंजक तरीके से उपन्यास के रूप में कलमबद्ध किया है।
'वो कॉमरेड स्स्स्सा' बिहार की राजनीति का एक विद्रूप सच है। यों तो जात और जमात अरसे से बिहार की राजनीति के रग-रग में बसा हुआ है, पर 1990 के बाद तो राजनीतिक चेहरे जातियों के रक्त की प्यासी हो गयी। नक्सलवाद और जातीय सेनाओं की गरजती और बारूद उगलती बंदूकों से राज्य का ज्यादातर जिला लाल इलाका बन गया। वर्ग संघर्ष के नाम पर वामपंथी पार्टियां नक्सलवाद की सरपरस्त बनीं, तो जवाब में उतरे जातीय सेनाओं को भी राजनीति का संरक्षण मिला। नक्सलवाद और जातीय सेनाओं के बीच शासन पर पकड़ बनाये रखने के लिए बाहुबलियों को भी सत्ता का वरदहस्त प्राप्त हुआ। कॉमरेड मंडल दा नक्सलियों के सहारे वाम पार्टी का दबदबा कायम रखने को आतुर हैं। व्याकुलता इतनी है कि नक्सलियों द्वारा दस्ते में शामिल लड़कियों का शारीरिक शोषण भी उन्हें गलत नहीं लगता।
राजनीतिक चरित्र ऐसा कि सत्ता के करीब रहने के लिए यादव जी जैसे मुख्यमंत्री का तलवा तक चाटने को तैयार, तो कभी दुत्कार दिये जाने पर वाम पार्टी को सरकार का सबसे मुखर विरोधी साबित करने को आमादा। यादव जी की राजनीति तो खुलकर सवर्णों का विरोध पर ही टिकी है। नक्सलियों और यादव जी की सवर्ण विरोधी राजनीति का प्रतिकार करने के लिए मुखिया जी की सेना सामने आती है। राजनीति के तीसरे कोण पर खड़ी पार्टी परोक्ष रूप से मुखिया जी की सेना के साथ है। इन स्थितियों-परिस्थितियों में अपने-अपने वर्चस्व के लिए नक्सलियों-बाहुबलियों और मुखिया जी की सेना संहार दर संहार कर रही है।
नक्सलियों द्वारा किये गये ऐसे नरसंहार में ही अपनों को खो चुके होनहार और प्रतिभावान छात्र रणविजय के दिल में बदले की आग जलती है। बदला लेने का उसका तरीका अनूठा है। मुखिया जी की सेना में शामिल होने का ऑफर ठुकराते हुए उसने बीटेक करने के बाद यूपीएससी क्रैक किया। फिर भारतीय पुलिस सेवा ज्वाइन कर नक्सलवाद के खात्मे का संकल्प लिया। दूसरी ओर रणविजय के बचपन का साथी जतिन कॉमरेड मंडल दा के बहकावे में आकर अपने बाप पर ठाकुर भंवर द्वारा किये गये जुल्म का बदला लेने नक्सली बन जाता है। जतिन की बहन रधिया को भी मजबूरी में नक्सलियों के दस्ते में शामिल होना पड़ा। नक्सल दस्ते में रहते रधिया को कॉमरेडों की गंदी नीयत और दोहरे चरित्र का भान होता है।
रधिया किसी मजबूरी में दस्ते में शामिल हुई लड़कियों को नक्सली मांद से आजाद करने की लड़ाई लड़ती है। वक्त करवट बदलता है और रणविजय उसी गढ़वा जिले का एसपी बनकर आता है, जो नक्सलियों का सबसे बड़ा गढ़ है। जतिन और रधिया के नक्सल दस्ता का अड्डा भी यहीं बुढ़वा पहाड़ पर है। फिर शुरू होता है टकराव और संघर्ष। रणविजय, जतिन और रधिया अपने-अपने मकसद के साथ संघर्ष करते हैं। जमींदारों से संघर्ष करते हुए ठाकुर भंवर का अंत जतिन का मकसद है, तो नक्सली दस्ते में शामिल दैहिक शोषण को मजबूर लड़कियों को आजाद कराना रधिया का लक्ष्य।
दूसरी ओर रणविजय ने नक्सलवाद को खत्म करने का संकल्प लिया है। रणविजय के संकल्प में उसकी आईएएस मित्र दीपा सूरी का भी साथ मिलता है। सभी के रास्ते अवरोधों और संघर्षों से होकर गुजरते हैं। उपन्यास में राजनीतिक स्थितियों-परिस्थितियों का चित्रण बेहद ही संजीदगी से किया गया है। बताया गया कि शीघ्र ही उपन्यास का पेपर बैक संस्करण भी उपलब्ध कराया जाएगा।
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