सड़कों पर हुड़दंग मचाने वाले कमजोर कैसे
समरेंद्र कुमार
सुप्रीम कोर्ट ने एससी/एसटी ऐक्ट में जो संशोधन दिया है वह सिर्फ इसके दुरुपयोग को रोकने के लिए है। इस कानून के जरिए दलितों और आदिवासियों को कानूनी संरक्षण प्रदान किया गया है। ताकि उन्हें कमजोर समझ कर कोई अपमानित न करे। प्रताड़ित न करे। यह आजादी के बाद स समय के लिए था जब इन समुदायों के लोग सचमुच मासूम और कमजोर थे। कोर्ट के निर्णय को सही ढंग से समझे बिना जिस तरह की प्रतिक्रिया देश के विभिन्न राज्यों के विभिन्न शहरों में देखने को मिली वह बताती है कि वे आज की तारीख में न मासूम हैं न कमजोर। पुलिस बल पर हमला करने वाले, वाहनों में आग लगाने वाले, रेलगाड़ियों का परिचालन ठप्प कर देने वाले, पूरे भारत को बंद कर देने वाले लोग कमजोर कैसे हो सकते हैं। वे पूरी व्यवस्था को ठप्प कर देने की ताकत रखते हैं। हां इतना जरूर कहा जा सकता है उनके अंदर अभी समझ विकसित नहीं हुई है। समझ होती तो संवैधानिक और लोकतांत्रिक तरीके से विरोध जताते। जिस जनहित याचिका पर निर्णय आया है, सकी सुनवाई के दौरान ही सके पक्षकार बनकर अपना पक्ष रखते। अपने पक्ष में याचिकाएं दायर करते। न्यायपालिका के फैसले का सड़कों पर विरोध करने का सीधा अर्थ न्यायपालिका की अवहेलना होता है। कोई भी समझदार व्यक्ति या समुदाय ऐसा नहीं करता।
कुछ ही समय पूर्व तीन तलाक पर फैसला आया था। इससे मुस्लिम समाज का पुरुष वर्ग आहत हुआ था। इसे मुसलिम पर्सनल ला के खिलाफ माना था। उसने विरोध जताया लेकिन सड़कों पर अराजकता का तांडव नहीं मचाया। यह समुदाय दलितों आदिवासियों से हर मामले में ज्यादा ताकत रखता है। संख्याबल में भी कम नहीं है। हर्वे-हथियार भी रखता है। लेकिन उसके अंदर इतनी समझदारी है कि किस मामले में विरोध की किस भाषा का उपयोग करना है। अयोध्या मुद्दे को लेकर न्यायालय के फैसले को मानने के लिए तैयार है। यह समझ एससी, एसटी के लोगों के अंदर नहीं है। अपने लि बने विशेष कानून की आड़ में उनके कुछ लोग अन्य समुदायों का भयादोहन करने का प्रयास करते रहे हैं, इससे उनके नेता भी इनकार नहीं कर सकते। फिर यदि कोर्ट ने एक सप्ताह के अंदर जांच कर प्राथमिकी दर्ज करने और परिवादी को विवेक के आधार पर जमानत देने का प्रावधान दे दिया तो कौन सा पहाड़ ढा दिया। हास्यास्पद तो यह है कि संबंधित समुदायों का एक बड़ा हिस्सा इस संशोधन को आरक्षण की व्यवस्था खत्म करने का प्रयास समझ रहा था। भला इस एक्ट का आरक्षण से क्या लेना-देना। जिस बाबा साहब अंबेडकर की ये दुहाई देते हैं उन्होंने तो हर 10 साल पर आरक्षण की समीक्षा की बात कही थी। फिर जब समीक्षा की बात आती है तो हंगामा क्यों होता है।
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